[ पहले व दूसरे अंक में आपने किबला का मजेदार परिचय पढा. जिसमें आप उनके चरित्र के बहाने उस समय की स्थितियों से भी परिचित हुए. “खोया पानी” नामक इस व्यंग्य उपन्यास में ऎसे अनेकों जुमले हैं जिनमे हास्य कूट कूट कर भरा है और व्यंग्य इतना महीन है कि समझ में आये तो मजा ही आ जाय. पाकिस्तान के मशहूर व्यंग्यकार मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताब आबे-गुम के इस हिन्दी अनुवाद छोटे छोटे भागों में यहां पेश किया जा रहा है. अब और आगे पढिये ]
==============================================
स्टेशन,लकड़मंडी और बाज़ारे–हुस्न में बिजोग
मकसद इस भूमिका का ये है कि जहां चारपाई का चलन हो वहां फ़र्नीचर का बिज़नेस पनप नहीं सकता। अब इसे इमारती लकड़ी कहिये या कुछ और, धंधा इसका भी हमेशा मंदा ही रहता था कि दुकानों की तादाद ग्राहकों से ज़ियादा थी। इसलिये कोई भी ऐसा नज़र आ जाये तो हुलिये और चाल-ढाल से जरा भी ग्राहक मालूम हो तो लकड़मंडी के दुकानदार उस पर टूट पड़ते। ज़ियादातर ग्राहक आस-पास के देहाती होते जो ज़िन्दगी में पहली और आख़िरी बार लकड़ी ख़रीदने कानपुर आते थे। इन बेचारों का लकड़ी से दो ही बार वास्ता पड़ता था। एक, अपना घर बनाते समय दूसरे अपना क्रिया कर्म करवाते समय।
पाकिस्तान बनने से पहले जिन पाठकों ने दिल्ली या लाहौर के रेलवे स्टेशन का नक्शा देखा है, वो इस छीना-झपटी का बखूबी अंदाज़ा कर सकते हैं। 1945 में हमने देखा कि दिल्ली से लाहौर आने वाली ट्रेन के रुकते ही जैसे ही मुसाफ़िर ने अपने जिस्म का कोई हिस्सा दरवाज़े या खिड़की से बाहर निकाला, क़ुली ने उसी को मज़बूती से पकड़ कर पूरे मुसाफ़िर को हथेली पर रखा और हवा में उठा लिया और उठाकर प्लेटफार्म पर किसी सुराही या हुक्के की चिलम पर बिठा दिया लेकिन जो मुसाफ़िर दूसरे मुसाफ़िरों के धक़्क़े से खुद-ब-खुद डिब्बे से बाहर निकल पड़े उनका हाल वैसा ही हुआ जैसा उर्दू की किसी नई-नवेली किताब का आलोचकों के हाथ होता है। जो चीज़ जितनी भी, जिसके हाथ लगी सर पर रख-कर हवा हो गया। दूसरे चरण में मुसाफ़िर पर होटलों के दलाल और एजेंट टूट पड़ते। सफेद कोट-पतलून, सफेद कमीज़, सफ़ॆद रूमाल, सफेद कैनवस के जूते, सफ़ेद मोज़े, सफेद दांत मगर इसके बावजूद मुहम्मद हुसैन आज़ाद (19वीं शताब्दी के महान लेखक) के शब्दों में हम ये नहीं कह सकते कि चमेली का ढेर पड़ा हंस रहा है। उनकी हर चीज़ सफेद और उजली होती, सिवाय चेहरे के। हंसते तो मालूम होता तवा हंस रहा है। ये मुसाफ़िर पर इस तरह गिरते जैसे इंग्लैंड में रग्बी की गेंद और एक-दूसरे पर खिलाड़ी गिरते हैं। उनके इन तमाम प्रयत्नों का मकसद खुद कुछ पाना नहीं, बल्कि दूसरों को पाने से दूर रखना होता था। मुसलमान दलाल तुर्की टोपी से पहचाने जाते। वो दिल्ली और यू.पी. से आने वाले मुसलमान मुसाफ़िरों को टोंटीदार लोटे, पर्दादार औरतों, बहुत-से बच्चों और क़ीमे-परांठे के भबके से पहचान लेते और अस्सलामो-अलैकुम या “Brother in Islam” कहकर लिपट जाते। मुसलमान मुसाफ़िरों के साथ सिर्फ़ मुसलमान दलाल ही धींगा-मुश्ती कर सकते थे। (जिस दलाल का हाथ मुसाफ़िर के कपड़ों के सब से मज़बूत हिस्से पर पड़ता वो वहीं से उसे घसीटता हुआ बाहर ले आता। जिनका हाथ लिबास के कमज़ोर या फटे-गले पुराने हिस्से पर पड़ता, वो बाद में उसको रूमाल की तरह इस्तेमाल करते।) अर्धनग्न मुसाफ़िर क़दम-क़दम पर अपने क़ाफी कपड़े भी उतरवाने पर मजबूर होता। स्टेशन के बाहर क़दम रखता तो असंख्य पहलवान, जिन्होंने अखाड़े को नाकाफ़ी पाकर तांगा चलाने का पेशा अपना लिया था, खुद को उस पर छोड़ देते। अगर मुसाफ़िर के तन पर कोई चीथड़ा संयोग से बच रहा होता तो उसे भी नोच कर तांगे की पिछली सीट पर रामचन्द्र जी की खड़ाऊं की तरह सजा देते अगर किसी के चूड़ीदार के नाड़े का सिरा तांगे वाले के हाथ लग जाता तो वो ग़रीब गांठ पे हाथ रखे उसी में बंध चला आता। कोई मुसाफ़िर का दामन आगे से खींचता, कोई पीछे से फाड़ता।
अंतिम राउण्ड में एक तगड़ा-सा तांगे वाला सवारी का दायां हाथ और दूसरा मुस्टन्डा उसका बायां हाथ पकड़ कर Tug of war खेलने लगते। लेकिन इससे पहले कि दोनों दावेदार अपने-अपने हिस्से की रान और हाथ उखाड़ कर ले जायें, एक तीसरा फ़ुर्तीला तांगे वाला टांगों के चिरे हुए चिमटे के नीचे बैठ कर मुसाफ़िर को एकाएक अपने कंधें पर उठा लेता और तांगे में जोतकर हवा हो जाता।
लगभग यही नक्शा कोपरगंज की लकड़मंडी का हुआ करता था जिसके बीच में क़िबला की दुकान थी। गोदाम आम-तौर पर दुकान से ही जुड़े हुए पीछे होते थे। ग्राहक पकड़ने के लिए क़िबला और दो-तीन चिड़ीमार दुकानदारों ने ये किया कि दुकानों के बाहर सड़क पर लकड़ी के छोटे-छोटे केबिन बना लिये। क़िबला का केबिन मसनद, तकिये, हुक्के, उगालदान और स्प्रिंग से खुलने वाले चाक़ू से सजा हुआ था। केबिन जैसे एक तरह का मचान था, जहां से वो ग्राहक को मार गिराते थे। फ़िर उसे चूम-पुचकार कर अंदर ले जाया जाता, जहां कोशिश यह होती थी ख़ाली-हाथ और भरी-जेब वापस न जाने पाये। जैसे ही कोई व्यक्ति जो अंदाज़े-से ग्राहक लगता, सामने से गुज़रता तो दूर और नज़दीक के दुकानदार उसे हाथ के इशारे से या आवाज़ देकर बुलाते: ‘महाराज! महाराज!’ इन महाराजों को दूसरे दुकानदारों के पंजे से छुड़ाने और खुद घसीटकर अपनी कछार में ले जाने के दौरान अक्सर उनकी पगिड़यां खुल कर पैरों में उलझ जातीं। इस सिलसिले में आपस में इतने झगड़े और हाथापाई हो चुकी थी कि मंडी के तमाम व्यापारियों ने पंचायती प़फैसला किया कि ग्राहक को सिर्फ वही दुकानदार आवाज़ देकर बुलायेगा, जिसकी दुकान के सामने से वो गुज़र रहा हो, लेकिन जैसे ही वह किसी दूसरे दुकानदार के आक्रमण-क्षेत्रा में दाखिल होगा तो उसे कोई और दुकानदार हरगिज़ आवाज़ न देगा। इसके बावजूद छीना-झपटी और कुश्तम-पछाड़ बढ़ती ही गयी तो हर दुकान के आगे चूने से हदबंदी की लाइन खींच दी गयी। इससे यह फ़र्क़ पड़ा कि कुश्ती बंद हो गयी और कबड्डी होने लगी। कुछ दुकानदारों ने मार-पीट, ग्राहकों का हांका और उन्हें डंडा-डोली करके अन्दर लाने के लिए बिगड़े पहलवान और शहर के छटे हुए शुहदे और मुस्टंडे पार्ट-टाइम नौकरी पर रख लिये थे। आर्थिक मंदी अपनी चरम-सीमा तक पहुंची हुई थी। यह लोग दिन में लकड़-मंडी के ग्राहकों को डरा-धमका कर खराब और कण्डम माल खरीदवाते और रात को यही फ़र्ज बाज़ारे-हुस्न में अंजाम देते। बहुत-सी तवाय़फों ने हर रात अपनी आबरू को ज़ियादा से ज़ियादा असुरक्षित रखने के उद्देश्य से इनको बतौर ‘पिम्प’ नौकर रख छोड़ा था। क़िबला ने इस क़िस्म का कोई गुण्डा या कुचरित्र पहलवान नौकर नहीं रखा, कि उन्हें अपने हाथों की ताकत पर पूरा भरोसा था लेकिन औरों की तरह माल की चिराई-कटाई में मार-कुटाई का खर्चा भी शामिल कर लेते थे।
ख़ून निकालने के तरीक़े : ज़ोंक, सींगी, लाठी
हर वक्त क्रोधावस्था में रहते थे। सोने से पहले ऐसा मूड बना कर लेटते कि आंख खुलते ही, गुस्सा करने में आसानी हो। माथे के तीन बल सोते में भी नहीं मिटते थे। गुस्से की सबसे ख़ालिस क़िस्म वह होती है जो किसी बहाने की मुहताज न हो या किसी बहुत ही मामूली सी बात पर आ जाये। गुस्से के आखिर होते-होते यह भी याद नहीं रहता था कि आया किस बात पर था। बीबी उनको रोज़ा नहीं रखने देती थीं। यह शायद 1935 की बात है। एक दिन-रात की नमाज़ के बाद गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर अपनी पुरानी परेशानियां दूर होने की दुआयें मांग रहे थे कि एक ताज़ा परेशानी का खयाल आते ही एकदम क्रोध आ गया। दुआ में ही कहने लगे कि तूने मेरी पुरानी परेशानियां ही कौन-सी दूर कर दीं, जो अब यह नई परेशानी दूर करेगा। उस रात मुसल्ला (नमाज़ पढ़ने की चादर) तह करने के बाद फ़िर कभी नमाज़ नहीं पढ़ी।
उनके गुस्से पर याद आया कि उस ज़माने में कनमैलिये मुहल्लों, बाज़ारों में फेरी लगाते थे। कान का मैल निकालना ही क्या, दुनिया जहान के काम घर बैठे हो जाते थे। सब्शी, गोश्त और सौदा-सुलुफ़ की खरीदारी, हजामत, तालीम, प्रसव,पीढ़ी, खट-खटोले की-यहां तक कि खुद अपनी मरम्मत भी घर बैठे हो जाती। बीबियों के नाखुन निहन्नी से काटने और पीठ मलने के लिये नाइनें घर आती थीं। कपड़े भी मुग़लानियां घर आकर सीती थीं ताकि किसी को नाप तक की हवा न लगे। हालांकि उस समय के ज़नाना कपड़ों के जो नमूने हमारी नज़र से गुज़रे हैं वो ऐसे होते थे कि किसी बड़े लेटर-बक्स का नाप लेकर सिये जा सकते थे। मतलब ये कि सब काम घर ही में हो जाते थे। हद यह कि मौत तक घर में घटित होती थी। इसके लिये बाहर जा कर किसी ट्रक से अपनी आत्मा निकलवाने की ज़ुरूरत नहीं पड़ती थी। खून की खराबी से किसी के बार-बार फोड़े-फुंसी निकलें, या दिमाग़ में बुरे खयालात की भीड़ दिन-दहाड़े भी रहने लगे तो घर पर ही फ़स्द (रगों से खून निकलवाना) खोल दी जाती थी। अधिक और खराब खून निकलवाने के उद्देश्य से अपना सर फुड़वाने या फोड़ने के लिये किसी राजनैतिक जलसे में जाने या सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन करके लाठी खाने की ज़ुरूरत नहीं पड़ती थी। उस ज़माने में लाठी को खून निकालने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाता था। जोंक और सींगी लगाने वाली कंजरियां रोज़ फेरी लगाती थीं, अगर उस समय के किसी हकीम का हाथ आजकल के नौजवानों की नब्ज़ पर पड़ जाये तो कोई नौजवान ऐसा न बचे जिसके जहां-तहां सींगी लगी नज़र न आये। रहे हम जैसे आजकल के बुज़ुर्ग कि
“की जिससे बात उसको हिदायत ज़ुरूर की”
तो! कोई बुज़ुर्ग ऐसा न बचेगा, जिसकी ज़बान पर हकीम लोग जोंक न लगवा दें।
हम क़िस्सा यह बयान करने चले थे कि गर्मियों के दिन थे। क़िबला क़ोरमा और खरबूज़ा खाने के बाद केबिन में झपकी ले रहे थे कि अचानक कनमैलिये ने केबिन के दरवाज़े पर बड़ी ज़ोर से आवाज लगायी ‘कान का मैल’। ख़ुदा जाने मीठी-नींद सो रहे थे या कोई बहुत-ही हसीन ख्वाब देख रहे थे जिसमें ग्राहक उनसे तिगुने दामों में धड़ाधड़ लकड़ी खरीद रहे थे, हड़बड़ा कर उठ बैठे। एकबार तो दहल गये। चिक के पास पड़ी हुई लकड़ी उठा कर उसके पीछे हो लिये। कमीने की यह हिम्मत कि उनके कान से सिर्फ गज़ भर दूर, बल्कि पास, ऐसी बेतमीज़ी से चीखे। यह कहना तो ठीक न होगा कि आगे-आगे वो और पीछे-पीछे ये, इसलिये कि क़िबला गुस्से में ऐसे भरे हुए थे कि कभी-कभी उससे आगे भी निकल जाते थे। सड़क पर कुछ दूर भागने के बाद कनमैलिया गलियों में निकल गया और आंखों से ओझल हो गया, मगर क़िबला सिर्फ अपनी छठी-इंद्रिय की बतायी हुई दिशा में दौड़ते रहे, और यह वो दिशा थी जिस तरफ़ कोई व्यक्ति, जिसकी पांचों इंद्रियां सलामत हों, हमला करने के चक्कर में लाठी घुमाता हरगिज़ न जाता कि ये थाने की तरफ़ जाती थी। इस वहशियाना दोड़ में क़िबला की लकड़ी और कनमैलिये का पग्गड़, जिसके हर पेच में उसने मैल निकालने के औज़ार उड़स रखे थे, ज़मीन पर गिर गया। उसमें से एक डिबिया भी निकली, जिसमें उसने कान का मैल जमा कर रखा था। नज़र बचा कर उसी में से तोला भर मैल निकाल कर दिखा देता कि देखो तुम्हारे कान में जो भिन-भिन, तिन-तिन, की आवाज़ें आ रही थीं वो इन्हीं की थीं। लेकिन यह सच है कि वो कान की भूलभुलैयों में इतनी दूर तक सहज-सहज सलाई डालता चला जाता कि महसूस होता-अभी कान के रास्ते आंतें भी निकाल कर हथेली पर रख देगा। क़िबला ने इस पग्गड़ को बल्ली पर चढ़ा कर बल्ली अपने केबिन के सामने इस तरह गाड़ दी, जिस तरह पहले समय में कोई बेसब्र उत्तराधिकारी शहज़ादा या वो न हो तो फ़िर कोई दुश्मन, बादशाह सलामत का सर काट कर भाले पर हर ख़ासो-आम की सूचना के लिये उठा देता था। इसका डर ऐसा बैठा कि दुकान के सामने से बढ़ई,खटबुने, सींगी लगाने वालियों और सहरी (रमज़ान के महीने में दिन निकलने से पहले खाया जाने-वाला खाना) के लिये जगाने वालों ने भी निकलना छोड़ दिया। पड़ोस की मस्ज़िद का बुरी आवाज़ वाला मुअज़्ज़िन (अज़ान देने वाला) भी पीछे वाली गली से आने जाने लगा।
जारी….
===========================================
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
Technorati Tags: पुस्तक चर्चा, समीक्षा, काकेश, विमोचन, हिन्दी, किताब, युसूफी, व्यंग्य, humour, satire, humor, kakesh, hindi blogging, book, review
चिट्ठाजगत चिप्पीयाँ: पुस्तक चर्चा, समीक्षा, काकेश, विमोचन, हिन्दी, किताब, युसूफी, व्यंग्य
काकेश जी एक बात है जो आपने पहले एपिसोड मे कही थी कि इसे पढ़ मुंह से सिर्फ वाह वाह निकलेगी. सच कहा था आपने. पढ़ते पढ़ते मज़ा आ रहा है. अमूमन में रविवार को कंप्युटर से पंगा नही लेता हूँ पर किबला और मानस के लिए ये भी करना पड़ा
काकेश जी , अभी तक तीनों ऎपिसोड एक एक कर पढ रहा हूँ. मजा आ रहा है. मैं पूरा उप्न्यास एक बार में नहीं पढ़ पाता इसलिये मेरे लिये तो यही अच्छा है कि थोड़ा थोड़ा पढूं. इतने अच्छे उप्न्यास के लिये आपको जितने भी धन्य्वाद दूँ कम है. पहले आपकी मधुशाला भी पढ़ रहा था..उसे भी पूरा करें.पंत जी वाला भाग पढ्ने की प्रतीक्षा है.
यह तो वास्तव में व्यंग का मुरब्बा है। आंवले को सिझा कर कोंच कोंच कर शीरा मिलाया जाता है; वैसे ही इसके हर वाक्य में/शब्द में सटायर मिलाया गया है।
बहुत दिनों बाद पढ़ा इतना धारदार व्यंग…साधुवाद
किबला बहुत ही लाज़वाब है।
किबला के क्या कहने …..लेखन और दें….
काकेश जी क्या कहने । पर ये टुकड़ों टुकड़ों में पढ़ने के हम नहीं आदी। हम तो खरीद कर ही पढ़ते है। सोने पे सुहागा ये कि आपने पता भी मुहैया कराया है तो फिर देर किस बात की। कल ही किये देते हैं आर्ड़र।
आपके ब्लागरोल में ठौर मिल गया , कलेजे को ठंडक पहुंची। शुक्रिया तो बनता ही है।