उमर खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद सुमित्रानंदन पंत ने 1929 में उर्दु के प्रसिद्ध शायर असगर साहब गोडवी की सहायता और इंडियन प्रेस के आग्रह पर किया था. यह अनुवाद “मधुज्वाल” नाम से 1948 में प्रकाशित हुआ था. अन्य हिन्दी अनुवादकों की तरह उनका यह अनुवाद फिट्जराल्ड की की पुस्तक पर आधारित नहीं था बल्कि उन्होने मूल फारसी से हिन्दी अनुवाद किया था. मूल फारसी को समझने में उनकी सहायता असगर साहब ने की थी. इसीलिये इस पुस्तक में पाठक को कल्पनाशीलता के कुछ नये रंग मिलते हैं. इसी कल्पनाशीलता की वजह से यह अनुवाद स्वयं के ज्यादा करीब लगता है. नये प्रतिमानों में कोयल है, बुलबुल है,गुलाब और आम्र मंजरी की गंध भी है.”मधुज्वाल” में नये छंद विधान हैं जो कहीं कहीं रुबाई वाले छंद में परिणित हो जाते हैं और कहीं एक्दम दूसरा ही रूप ले लेते हैं.इस पुस्तक में पदों की संख्या भी अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले कहीं ज्यादा है. “मधुज्वाल” के द्वितीय संस्करण में कुल 151 पद हैं.
आइये कुछ पदों पर नजर डालें.
खोलकर मदिरालय का द्वार प्रात: ही कोई उठा पुकार मुग्ध श्रवणों में मधु रव घोल, जाग उन्मद मदिरा के छात्र!
ढुलक कर यौवन मधु अनमोल शेष रह जाय नहीं मृदु मात्र, ढाल जीवन मदिरा जी खोल लबालब भर ले उर का पात्र! [2]
सुरालय हो मेरा संसार, सुरा-सुरभित उर के उदगार! सुरा ही प्रिय सहचरि सुकुमार, सुरा,लज्जारुण मुख साकार!
उमर को नहीं स्वर्ग की चाह, सुरा में भरा स्वर्ग का सार! सुरालय राह स्वर्ग की राह, सुरालय द्वार स्वर्ग का द्वार्! [11]
अधर मधु किसने किया सृजन ? तरल गरल ! रची क्यों नारी चिर निरुपम ? रूप अनल ! अगर इनसे रहना वंचित यही विधान , दिये विधि ने तप संयम हित न क्यों दृढ़ प्राण ? [16]
छूट जायें जब तन से प्राण सुरा में मुझे कराना स्नान ! सुरा,साकी,प्याले का नाम सुनाना मुझे उमर अविराम!
खोजना चाहे कोई भूल मुझे मेरे मरने के बाद , पांथशाल की सूंघे धूल, दिलायेगी वो मेरी याद! [18]
इस जीवन का भेद जिसे मिल गया गभीर अपार, रहा ना उसको क्लेद मरण भी बना स्वर्ग का द्वार !
करले आत्म विकास , खोज पथ, जब तक दीपक हाथ, मरने बाद , निराश , छोड़ देगा प्रकाश भी साथ! [23]
रम्य मधुवन हो स्वर्ग समान, सुरा हो सुरबाला का ज्ञान ! तरुण बुलबुल की विह्वल तान प्रणय ज्वाला से भर दे प्राण !
न विधि का भय , न जगत का ज्ञान, स्वर्ग की स्पृहा , नरक का ध्यान ,- मदिर चितवन पर दूँ जय बार चूम अधरों की मदिरा-धार ! [28]
उमर दो दिन का यह संसार लबालब भर ले उर भ्रंगार क्षणिक जीवन यौवन का मेल, सुरा प्याली का फेनिल खेल !
देख , वन के फूलों की डाल ललक खिलती , झरती तत्काल ! व्यर्थ मत चिंता कर , नादान , पान कर मदिराधर कर पान ! [30]
लज्जारुण मुख , बैठी सम्मुख , प्रेयसि कंपित कर से उत्सुक भर ज्वाला रस , हाला हँस हँस उमर पिलाए , ह्र्दय हो अक्श !
ह्रदय हीन कह लें मलीन, मैं मधु वारिधि का मुग्ध मीन ! अपवर्ग व्यर्थ , केवल निसर्ग संगीत, सुरा , सुन्दरी , – स्वर्ग ! [33]
पंचम पिकरव , विकल मनोभव , यौवन उत्सव ! मधुवन गुंजित , नीर तंरंगित तीर कल ध्वनित ! हँसमुख सुन्दर प्रिय सुख सहचर , प्रिया मनोहर , पी मदिराधर सखे , निरंतर , जीवन क्षण भर ! [35]
अपना आना किसने जाना ? जग में आ फिर क्या पछताना ? जो आते वो निश्चय जाते, तुझको मुझको भी है जाना !
बाँध कमर , ओ साकी सुन्दर , उठ कंपित कर में प्याली धर , प्रीति सुधा भर,भीति द्विधा हर, चिर विस्मृति में डूबे अंतर ! [49]
मधुज्वाल के पद हिन्दी के बांकी अनुवादों से थोड़े अलग हैं. इसलिये इनको पढ़ने में एक नयी ताजगी का अहसास होता है. अगले अंक में इसी किताब के कुछ और पदों की चर्चा करेंगे और कुछ चर्चा होगी बच्चन और सुमित्रानंदन पंत के बीच हुए पत्र व्यवहार के बारे में भी.
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कमाल है हमें तो मालूम ही नहीं था..वाह!
Om namah shivaya.
love,serve,meditate and realize.
with love and light: swamiji
daer dilip