मधुशाला के निर्धारित क्रम को तोड़ते हुए आइये एक चर्चा करे पिछ्ले लेखों में हुई टिप्पणीयों पर.कुछ बहुत ही अच्छी टिप्पणीयां आयी जिंन्होने सोचने पर भी बाध्य किया और आगे लिखने के लिये प्रेरित भी. सबसे पहले राकेश जी का धन्यवाद जिन्होने डिजिटल लाइब्रेरी का पता बताया और मैं मैथिलीशरण गुप्त जी की पुस्तक को खोज सका. इसके कुछ अंश भी इस लेख में शामिल किये जायेंगे. तो शुरु करें चर्चा.
पहली पोस्ट पर अनिल रघुराज जी ने टिप्पणी की.
हमारे बच्चन साहब पूरी तरह खय्याम (तंबू बनाने वाले) थे और आठ सौ साल पुरानी रुबाइयों को पैबंद लगाकर पेश कर दिया?
अनिल जी खैयाम ने सबको तंबू (खेमा) बनाने वाला बना दिया और ना जाने कितने लोगों ने अपने अपने हिसाब से तंबू बनाये.एक जानकारी और देता चलूं.जैसे अपने देश में बहुत से शायर अपने नाम के आगे अपने शहर का नाम जोड़ लेते हैं वैसे ही फारसी कवि अपने काम के हिसाब से अपना उपनाम रख लेते थे जैसे अत्तार: इत्र बेचने वाला;अस्सार:तेल बेचने वाला,हमगर:कपड़े रफू करने वाला इत्यादि.
आलोक पुराणिक जी भी अपनी पुरानी यादों के खजाने से निकाल के कुछ
लाये.
मुझे याद पड़ता है कि पंकज उदास ने सिर्फ उमर खैयाम पर केंद्रित दो कैसेटों का एक संग्रह निकाला था। बहुत बढ़िया था।
ये दो कैसेट का सैट ‘रुबाई’ नाम से आया था. जिसके गायक-संगीतकार ‘पंकज उधास’ थे. गीत ‘जमीर काज़मी’ के थे. कैसेट में ज़मीर के अलावा ‘उमर खैयाम’ का नाम भी बतौर गीतकार के रूप में था.एक गीत के बोल कुछ इस तरह थे.
खोते न हों जो होश उन्हें घर बुला के पी
या फिर बुतों को सामने, अपने बिठा के पी
बेहद ना पी, ना बोल बहुत, जोश में न आ
रुक रुक के पी, सुकून से पी, सर झुका के पी
दौलत है फ़क़त चार दिनों की पी ले
इज़्ज़त है फ़क़त चार दिनों की पी ले
है वक़्त शब-ओ-रोज़ तबाही की तरफ़
मोहलत है फ़क़त चार दिनों की पी ले
चलो पी लें के यार आये न आये
ये मौसम बार बार, आये न आये
गुलाबों की तरह तुम ताज़ा रहना
ज़माने में बहार आये न आये
ये सोचा है कि उसको भूल जायें
अब इस दिल को क़रार आये न आये
“ज़मीर” इस ज़िन्दगी से क्यूं ख़फ़ा हो
इसे फिर तुमपे प्यार आये न आये
ये दो कैसेटों का सैट शायद 1990 में आया था. जहां तक मुझे याद पड़ता है ये उस समय के हिसाब से काफी मंहगा था तकरीबन 45 रुपये का था.
संजय पटेल ने कहा.
उमर ख़ैयाम के अलावा बच्चन जी की प्रथम पत्नी श्यामा के असामयिक निधन का दर्द भी शामिल है मधुशाला में.इसका ज़िक्र बच्चनजी की आत्मकथा क्या भूलूँ क्या याद करूँ में भी आया है.यदि मन्ना डे स्वरांकित और जयदेव द्वारा स्वरबध्द एलबम मधुशाला को सुना जाए तो उसके दूसरे भाग (जो शुरू हो तो है इस पंक्ति से..छोटे से जीवन में कितना प्यार करूँ,पी लूँ हाला,आने के ही साथ जगत में कहलाया जानेवाला)में भी युवावस्था में विदुर हुए बच्चन जी की पीड़ा सुनी जा सकती है.इसमें कोई शक नहीं कि मधुशाला पूरी तरह उमर ख़ैयाम की भावधारा से अनुप्राणित है लेकिन उसमें बच्चनजी जैसे वरिष्ठ काव्य हस्ताक्षर का कारनामा भी मौजूद है.
बहुत से लोगों का ये मानना है कि मधुशाला में बच्चन जी की पत्नी श्यामा जी के निधन का दर्द भी शामिल था.लेकिन यह पूरी तरह गलत है. बच्चन जी ने मधुशाला की रचना 1933 में की थी. यह पुस्तक 1935 में प्रकाशित हो गयी थी. श्यामा जी की मृत्यू 1936 में हुई थी. अपनी पुस्तक निशा निमंत्रण की भूमिका में बच्चन ने इस बारे में विस्तार से लिखा है. लीजिये प्रस्तुत है कुछ अंश.
‘रुबाइयात उमर खैयाम’ से मेरा परिचय तो पुराना था पर अब वह मेरी परम प्रिय पुस्तक हो गई थी। रात को मेरे तकिए के नीचे रहती, दिन को मेरी जेब में। अपने ऊपर खैयाम के प्रभाव को मैंने इन पंक्तियों में स्वीकार किया है :
तुम्हारी मदिरा से अभिषिक्त
हुए थे जिस दिन मेरे प्राण
उसी दिन मेरे मुख की बात
हुई थी अंतरतम की तान(आरती और अंगारे)
मैंने ‘रुबाइयात उमर खैयाम’ का अनुवाद कर डाला। खैयाम की दुनिया की रंगीनी ने मुझे इतना मोह लिया कि अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भी मुझे सबसे उपयुक्त प्रतीक वे ही जान पड़े जिनकी ओर खैयाम ने संकेत किया था-हाला, प्याला, मधुशाला और मधुबाला।
1933-’34 में मैंने ‘मधुशाला’ लिखी।
1934’35 में मैंने ‘मधुबाला’ लिखी।हर तूफान मन्द पड़ता है, हर नशा उतरता है। मेरी भावनाओं ने तीव्रतम स्थिति छू ली थी। वहाँ पर ज्यादा देर टिका रहना असम्भव था। जीवन का पहिया घूम गया-
गिर-गिर टूटे घट-प्याले,
बुझ दीप गए सब क्षण में,
सब चले किए सिर नीचे
ले अरमानों की झोली।
गूँजी मदिरालय भर में
लो चलो-चलो की बोली।
(मधुबाला)अब वे मेरे गान कहाँ हैं !
टूट गई मरकत की प्याली,
लुप्त हुई मदिरा की लाली,मेरा व्याकुल मन बहलानेवाले अब सामान कहाँ हैं ?
(निशा-निमंत्रण)और उल्लास की चोटी से अवसाद के गहर में गिरकर मैंने हलाहल मरघट’ और ‘अतीत का गीत’ की प्रतिध्वनि से अपने को व्यक्त करना चाहा। (‘हलाहल’ पुस्तक-रूप में प्रकाशित हो चुका है। ‘मरघट’ और ‘अतीत का गीत’ दीमकों की जूठन के रूप में मेरे कागज-पत्रों में कहीं पड़े हैं।)
नियति का व्यंग्य कि जब मधुशाला टूट चुकी है और मधु का प्याला फूट चुका तब मुझसे मधु के गीत लिखने की कैफियत माँगी जाने लगी और क्षय के रोग में पड़े हुए मैंने इस प्रकार उत्तर दिया :एक दिन मैंने लिया था काल से कुछ श्वास का ऋण,
आज भी उसको चुकाता, ले रहा वह क्रूर गिन-गिन;
ब्याज में मुझसे उगाहा है हृदय का गान उसने,
किंतु होने में उऋण अब शेष केवल और दो दिन;
गिर पड़ूंगा तान चादर सर्वथा निश्चिंत होकर,
भूलकर जग ने किया किस-किस तरह अपमान मेरा।क्या किया मैंने, नहीं जो कर चुका संसार अब तक ?
वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी ?हैं लिखे मधुगीत मैंने ही खड़े जीवन-समर में।
(मधुकलश)
लेकिन नियति का व्यंग्य अभी पूरा नहीं हुआ था। मरण की प्रतीक्षा में मैं था। जीवन के पार क्या होगा, इसकी चिन्ता मुझे थी-इस पार, प्रिये, मधु है, तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा ?-पर नियति को तो मरण से भी अधिक भयंकर एकाकीपन मेरे जीवन में लाना था।
न झिझका औ’ न हुआ भयभीत
न भागा ही लेकर के प्राण,
दिखा जब मुझको आता काल
कफन का ले हाथों में थान;
बढ़ाया पट जब मेरी ओर,
उठा, तैयार हुआ तत्काल,
निकट जो मेरे थे वरदान
दिया, पर, उसने उन पर डाल।(हलाहल)
मेरी पत्नी श्यामा बीमार हो गई और दो सौ सोलह दिन चारपाई पर पड़ी रहकर, हमारे बचाने के सारे उपायों को विफल कर, उस पार चली गई।
‘गुलहजारा’ कविता की इन पंक्तियों में,
मृत्यु शैया पर पड़े अति
रुग्ण की अंतिम हँसी-सी,
यत्न करके लिख रही है,
एक लघु कलिका निराली।(मधुकलश)
उसी का एक चित्र है :
उठा करता था मन में प्रश्न
कि जाने क्या होगा उस पारनिवारण करने में संदेह
मजहबी पोथे थे बेकार
चले तुम, पूछा हैं ! किस ओर !
कहा बस तुमने एक जबान
तुम्हें थी जिसकी खोज-तलाश,
उसी का करने अनुसन्धान।(हलाहल)
मेरा ‘इस पार-उस पार’ गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। शायद आज भी है, पर उसके पीछे जो दर्शन है, उसका अनुभव उन लोगों को नहीं होता जो मुझसे बार-बार इस गीत को सुनाने का अनुरोध करते हैं। कई लोगों ने इस कविता की पैरोडियाँ भी लिखी हैं। नियति ने मेरे साथ इतना बड़ा व्यंग्य किया था कि इन नटखट पैरोडियों पर दुखी होने के बजाय मैं मुस्करा दिया हूँ।
अन्त का इतना था विश्वास
विदा का लिख डाला था गीत,
कलेजे को हाथों से थाम
सुना करते थे मन के गीत;गए थे वे तज मेरा साथ
मगर वह गीत लगा है संग,
ध्वनित हो बहु कण्ठों से आज,
किया करता है मुझ पर व्यंग्य।(हलाहल)
1930 के अन्त से जो संघर्ष मेरे जीवन में आरम्भ हुआ था उस की चरम स्थिति 1936 के अन्त में श्यामा के देहावसान में पहुँची।
सत्य मिटा, सपना भी टूटा।
तो यह तो सत्य है कि मधुशाला में कवि का दर्द भी शामिल था लेकिन श्यामा जी तब तक जीवित थी पर बीमार थीं.सोचिये किन परिस्थितियों में हुई थी मधुशाला की रचना.
मैथिलीशरण जी की पुस्तक पढ़कर ज्ञान के नये द्वार खुल रहे हैं. शीघ्र ही हाजिर होता हूँ कुछ नया लेकर मधुशाला की अगली कड़ी में.
पसंद करने के लिये आप सभी का धन्यवाद.
पिछ्ली कडियां…….
2. उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..
सच मे, इस बहाने इतनी गहन चर्चा होगी, अगर पहले से मालूम होता तो कुछ और ही टिप्पणी कर बैठते. गजब का उम्दा आलेख बन पड़ा है यह. बहुत आभार …आपसे ऐसी ही उम्मीदें हैं. जारी रहें. बधाई.
सही है। समीरालालजी का दर्द हमारा भी दर्द है।
@समीर भाई, अनूप जी : अभी भी आप टिप्पणी कर सकते हैं. एक बार और विराम ले लेंगे.
उमरखैय्याम की रुबाईयों पर आपका आलेख बहुत सुन्दर है।
घणे कलाकार हो भाया।
लोग तो पोस्ट पे कमेंट करते हैं, आप कमेंट की ही पोस्ट बना देते हो। भौत भढ़िया। क्या हुनर है सर। एक पोस्ट इसी पर।
खूब गहरी शोधमयी चर्चा चल रही है…जारी रहें
काफी कुछ जानने को मिल रहा है। इस श्रृंखला से मैं बहुत लाभान्वित हो रहा हूं। आभार …
वाकई बहुत कुछ जानने को मिल रहा है!
जारी रखें।
शुक्रिया!
हिंदी की पत्र-पत्रिका में ऐसे लेख विरल हो गए हैं….अच्छा है गुप्त जी का वह अनुवाद उनके ही प्रकाशन से छपा था और आजकल लोकभारती इलाहाबाद वाले उसके प्रकाशक वितरक है….
Kakesh ji..aapki ye post aaj hi padhi ..sangrahneey srinkhala hai aapki…bahut kuch naya jaanne ko mila hai ab tak..aapka aabhaar.
अब मैं सोच रही हूँ कि मैने ब्लोग की दुनिया में दाखिला लेते ही पहले आप की कक्षा क्युं न जोइन कर ली जी। बच्चन जी के बारे में कई भ्रातियां आज टूट गयीं। धन्यवाद