जब मैने पिछ्ला लेख लिखा था तब कोई इरादा नहीं था कि मैं कोई विवाद खड़ा करूं लेकिन ना जाने कुछ लोगों को वो पोस्ट विवादगर्भा लगी. खैर जाने दीजिये आप तो मेरी कहानी सुनिये जिसका वादा मैने अपनी पोस्ट में किया था. बचपन से अंग्रेजी ना जानना आपको कदम कदम पर परेशान करता है. जब मैं निचली कक्षाओं में था यानि कक्षा सात-आठ में तब कई मित्र ऎसे थे जो कक्षा पांच तक अंग्रेजी माध्यम से पढकर आये थे. उनके घर में अंग्रेजी माहौल भी था. यानि उनके माता पिता भी अंग्रेजी जानते थे.घर में अंग्रेजी अखबार आता ..अंग्रेजी पत्रिकाऎं आती.वो लोग अंग्रेजी गाने भी सुनते. तो कई बार बातों बातों में वो अंग्रेजी से संबंधित किसी बात की चर्चा करते तो मुझे कुछ भी समझ नहीं आता. वो लोग “हम्पटी डम्पटी सैट ऑन ऎ वॉल” या “बाबा बाबा ब्लैक शीप” जैसी पोयम की चर्चा करते तो वो सारी बातें अपने सर के ऊपर से निकल जाती. हम तो “चंदा मामा दूर के” या “ढोल बजाता भालू आया ढम ढम ढम” जैसी बाल कविताऎं जानते थे लेकिन उनकी चर्चा ही नहीं होती. उस समय मन को चोट लगती और एक हीन भावना का अहसास होता.
बचपन से ही लगा कि अपनी अंग्रेजी सुधारनी चाहिये.लेकिन सुधारें तो कैसे? घर में तो कोई खास अंग्रेजी जानता नहीं था. अंग्रेजी को सुधारने के लिये लोगों ने सलाह दी कि अंग्रेजी न्यूजपेपर पढ़ो. उसके ऎडिटोरियल पढो. लोगों की सलाह पर सप्ताह में एक बार अंग्रेजी समाचार पत्र भी लेना प्रारम्भ किया. लेकिन पूरे सप्ताह समाचार या ऎडिटोरियल पढ़ना या समझना तो दूर किसी एक लेख को लेकर ही लगे रहते. उसके कठिन शब्दों का डिक्सनरी से अर्थ निकाल कर एक कॉपी में नोट करते रहते.आधे अर्थ मिलते आधे नहीं.जो शब्द मिलते भी उसके भी तीन-चार अर्थ होते.तो यह समझ में नहीं आता कि कौन सा अर्थ कहाँ फिट बैठेगा. इसलिये आधी बातें समझ में आती आधी नहीं. हुआ यह कि इन शब्दों से तीन चार कॉपियाँ तो भर गयीं लेकिन अंग्रेजी ना सुधरनी थी ना सुधरी.
फिर किसी ने सलाह दी कि “रेन एंड मार्टिन” की ग्रामर पढो. वह किताब भी उस छोटे शहर में नहीं मिली. किसी तरह उसे अन्य शहर से मंगवाया गया. मुझे अभी भी याद है लाल रंग के कवर में वह चमकीले कवर वाली किताब. वह मिली तो लगा अब तो सारी मुरादें पूरी हो जायेंगी और हम भी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगेंगें. लेकिन उसे पढने से भी बहुत ज्यादा फायदा नहीं हुआ. ग्रामर के तो कई सारे नियम पता चल गये लेकिन अंग्रेजी बोलने समझने में कोई फरक नहीं पढ़ा उलटा हुआ यह कि अब अंग्रेजी में कुछ भी लिखने या बोलने से पहले यह सोचना पड़ता कि यह किस टैंस में हैं. यहाँ पर कौन सा वर्व है …कौन सा नाउन. तब लगा कि अंग्रेजी सचमुच बहुत कठिन है. अंग्रेजी बोलने वाले सारे लोग मुझे महान व भाग्यवान नजर आने लगे. मुझे लगने लगा कि शायद मैं कभी भी अंग्रेजी लिख या बोल नहीं पाउंगा.
उन दिनों इंजीनियरिंग के लिये प्रवेश परीक्षाऎं अंग्रेजी में ही होती थीं.तब आज की तरह गली गली में इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं थे. आई.आई.टी, रुड़की और एम.एन.आर. इन तीन परीक्षाओं में से किसी को पास करना इंजीनियरिंग में जाने वालों के लिये स्वप्न हुआ करता था. हमने भी यह तीनों परीक्षाऎं दी बारहवीं के बाद. उस समय तीनों अंग्रेजी में ही थी. और हुआ यह कि मैं इन तीनों में से किसी में भी पास नहीं हो पाया. इधर उसी साल बी.एस.सी में भी ऎडमीशन लिया था. लेकिन ध्यान तो सारा इंजीनियरिंग में था और फिर बी.एस.सी में भी अंग्रेजी में ही सब कुछ होना था. नतीजा यह हुआ कि जीवन में पहली बार फेल हो गया बी.एस.सी में .अगले साल सौभाग्य से एम.एन.आर की परीक्षा हिन्दी व अंग्रेजी दोनों में हुई. मैने हिन्दी माध्यम चुना और उसी वर्ष मैने उसे पास कर लिया और मेरा सलेक्सन इंजीनियरिंग में हो गया था.
चलिये एक किस्सा और. इंजीनियरिंग में काफी हद तक अंग्रेजी ठीक ठाक हो गयी. अब अंग्रेजी समझ आने लगी. लिखना भी ठीक ठाक सा हो गया.( हालांकि इसके लिये काफी मेहनत करनी पड़ी पर वह कभी और….). लेकिन बोलने में अभी भी कई बार सोचना पड़ता. फायनल ईयर में कैम्पस के लिये कई कंपनियाँ आई. उस समय वोल्टाज कंपनी में नौकरी मिलना सौभाग्य माना जाता था. क्योकि उनकी चयन प्रक्रिया काफी लंबी होती थी. वो लोग दो बार पहले लिखित परीक्षा लेते उसके बाद साक्षात्कार होते. दोनों लिखित परीक्षाओं को मैने पास कर लिया. अब बारी साक्षात्कार की थी. मैं टाई वाई लगा के तैयार था. साक्षात्कार में पहुंचा तो अंग्रेजी में साक्षात्कार शुरु हुआ. शुरु की कई चीजें तो कई बार शीशे के सामने खड़े होकर रटी हुई थी तो वो तो फटाफट बता दीं. लेकिन जब बात आगे बढ़ीं तो मैने अटकना चालू कर दिया. उसी अटकन भटकन में सारी बातें भूलता गया. मैने उनसे हिन्दी में बोलने की इजाजत भी मांगी जिसे उन्होने मना कर दिया. किसी तरह से साक्षात्कार समाप्त हुआ. मैने परिणाम की प्रतीक्षा भी नहीं की. मैं सीधा हॉस्टल आ गया और अपने कमरे को बंद कर रोने लगा. उस दिन फिर मुझे अहसास हुआ कि अंग्रेजी ना जानने की कितनी बड़ी सजा मैं भुगत रहा हूँ.
आज मैं आराम से अंग्रेजी लिख,बोल सकता हूँ लेकिन इस अंग्रेजी की वजह से सब कुछ जानते हुए भी कितनी बार मुझे नीचा देखना पड़ा यह मैं ही जानता हूँ. मैने तो उन सब परिस्थितियों का मुकाबला कर लिया लेकिन कितने ही ऎसे लोग होंगे जो अंग्रेजी ना जानने की हीन भावना के कारण आगे ही नहीं बढ़ पाते होंगे.
अगले लेख में मैं अपने विचार रखुंगा मेरे विचार में इसका समाधान क्या. अभी तो बहुत पका दिया ना. खैर कोई नहीं लिखते लिखते बहुत कुछ लिख गया.
When you talk of feeling/emotions and expression of your life passions, Hindi is the medium. When it is matter of earning and livelihood, English is the medium you ought not to neglect.
I can’t imagine Kanchipuram saree shop owner refusing to speak Hindi. Even if he is in Tamil Nadu, he has to do his business and learn Hindi!
हिन्दी-अंग्रेजी का टण्टा बेकार का है। बाकी आप पोस्ट ठेले जाओ तो ठेले जाओ! और कोई विषय नहीं तो यही सही। हिन्दी वाले विवाद बनाने में सहज महसूस करते हैं! 🙂
ह्म्म !! क्या कहा जाए ।
आज आपका पिछला लेख भी पढ़ा । भाषा सीखने से ज़्यादा बड़ी लड़ाई अपने कॉम्प्लेक्सेज़ जीतने की लड़ाई है । भाषा विवाद बेकार का मुद्दा है । मुझे तो लगता है कि जो जितनी भाषायें जानता है वो उतना ज़्यादा समृद्ध है । अंग्रेज़ी के आलावा अगर कल कोई और भाषा कॉमर्स की भाषा होती है तो हम सब झक्क मार कर उसे सीखेंगे । पर अपनी भाषा को भी जिलायें रखें । आपके अगले पोस्ट का इंतज़ार है ।
blog medium hae abhivyakti ka , un bhavo ko kii abhivyaktii jo man mae hotae hae per ham kehte nahin . ab aap jo likh rahe haen woh aap ke personal experiences hogae aur mere vichar mae apne personal experiences ko sabke saath sachhaii se jo baat sakta hae vo morally bahut strong hota hae . phir blog per to anam rahene kee bhi suvidha hae . isliyae likhe , apne vichro ko vyakt kare per hamesha kament kee apeksha naa kare . meri nazar mae blog ek autobiography hoti haen , dairy hotee hae . thanks
सही गलत अंगरेजी की चिंता ना करें, जैसी अंगरेजी अधिकांश भारतवासी बोलेंगे, वही सही मानी जायेगी। अंगरेजी अब एक भारतीय भाषा है, जो ब्रिटेन वाले भी बोल लेते हैं। पचास करोड़ भारतवासी जैसी अंगरेजी बोलेंगे, वही मानक हो जायेगी। ब्रिटेन, अमेरिका वालों की अंगरेजी गलत घोषित कर दी जायेगी। हंप्टी डप्टी रिप्लेस होने वाली है, इस कविता से –
यूपीए लेफ्ट सैट आन ए वाल
नंदीग्राम लेड टू ए ग्रेट फाल
आगे की बाद में बताऊँगा।
काफी अच्छा वर्णन है. अंग्रेजी न जानने के कारण हिन्दीभाषियों को समाज का एक तबका किस तरह से नीचा देखता है यह मैं ने भी देखा है क्योंकि मेरी पढाई हिन्दी में हुई थी.
सच है कि भाषा कोई भी बडी/छोटी, अच्छी/बुरी नहीं होती है, लेकिन जब एक भाषा दूसरी भाषा को नीचा दिखाने के लिये एवं उनका शोषण करने के लिये प्रयुक्त होती है तो इस गलती को सही करने के लिये हम सब को योगदान देना चाहिये.
कुछ एतिहासिक/राजनीतिक कारणों से आज अंग्रेजी हिन्दी के विकास में बाधा डाल रही है. अंग्रेजी को हटाने या उसका विरोध करने की जरूरत नहीं है, लेकिन इस बाधा को हटाने के लिये सतत प्रयत्न होना चाहिये — शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??
कुछ लोग दिशा देते हैं, बाकि अनुकरण करते है. हम भारतीय दशा दिशा तय करने वाले बनेंगे तो शायद हिन्दी का प्रभाव भी बढ़ेगा. हीन भावना न आये बाकि जो भाषा सिखनी हो सिखो.
अंग्रेजी ने बचपन में बहुत परेशान किया. फिर हम ढीठ हो गये. 🙂
काकेशजी मुझे लगता है अधिकांश लोग मर्म को नहीं समझ पा रहे हैं। मैं भी हिन्दी माध्यम से पढ़ा हूँ और आपसे पूरी तरह सहमत हूँ कि हिन्दी माध्यम वालों को आगे जाकर अपनी ऊर्जा को अंगरेजी सीखने में लगाना पड़ता है। जिन लोगों ने ऐसी परिस्थितियों का सामना नहीं किया उन्हें लगता है कि ये हिन्दी माध्यम वाले हमेशा रोते रहते हैं।
हिन्दी और इंग्लिश बोलने का मुद्दा तो चलता ही रहेगा। ये तो व्यक्ति के ऊपर है कि वो कैसे हालात का सामना करता है। भारत मे इंग्लिश पर बोलने -लिखने पर जोर देते है पर रशिया या चीन के लोग तो अपनी भाषा बोलने मे कोई संकोच नही करते है तो फिर हम हिन्दी बोलने मे क्यों संकोच करते है। और वो भी अपने देश मे ?
जो लोग भाषा को मजाक में लेते हैं वे खुद एक मजाक है. ईश्वर ऐसे लोगों को सम्यक स्मृति दे.
क्या कंहू. आपकी पोस्ट पढ़ कर कुछ ऐसे ही अपने दिनों की याद आ गई. और कमेंट क्या लिखु ये सोचते सोचते निचे सरक रहा था कि पुरानिक्जी की टिपण्णी पर नज़र पड़ी और बहुत जोर की हँसी आ गई. और मन एकदम हल्का लगने लगा. वैसे अपनी हालत तो आज भी आपके भूतकाल जैसे है ना सही इंग्लिश लिख सकते है और ना बोल सकते है. कुछ उपाय बताये.
अपनी कहानी आपसे एकदम उलट है. माँ – पिताजी भले ही हिन्दी मध्यम से पढे हों मगर अपने समय की परेशानियों को याद करते हुए (और शायद आने वाले समय का ध्यान रखते हुए भी!) बेटे को अन्रेज़ी का पाठ पढ़ने में कभी कसर न छोडी.
अतः मुझे बचपन से ही कान्वेंट एजुकेटेड होने के कारण कभी अंग्रेज़ी सम्बन्धी परेशानी न हुई. आज हालत यह है कि अंग्रेज़ी में तो हाथ साफ है मगर हिन्दी भूल सी गए हैं! कई मित्र मेरा हिन्दी का ब्लॉग देखते हैं तो पूछते हैं “इतनी अच्छी हिन्दी कहाँ सीखी ?” 🙁
सौरभ
कुल मिल के ए से जेड तक कुल छब्बीस अक्षर में ही तो पूरी अंग्रेजी निपट जाती है और आप इतने के लिए इतने परेशान हुए! धत तेरे की!
मैं असमंजस मैं हूँ क्योंकि मैं आपकी बात से भी सहमत हूँ, ज्ञान जी और अलोक पुराणिक जी की बात से भी सहमत हूँ, प्रत्यक्षा और ममता जी की बात से भी सहमत हूँ. लेकिन संजय बेगाणी जी की बात से सबसे ज्यादा सहमत हूँ की – अंग्रेजी ने बचपन में बहुत परेशान किया. फिर हम ढीठ हो गये.
टिप्पणियां बड़ी मजेदार आ रही है, कईयों को शायद व्यर्थ भी लग रही है। परन्तु वे इस पीड़ा को नहीं समझ सकते जिन्होने इस परेशानी का सामना नहीं किया…
शायद उनके लिये यह एक मजाक है।
हम भी हिंदी माध्यम के खालिश टाट पट्टी स्कूलों में पढे हैं,मेडीकल की पढाई करते समय कभी कभार लगता था कि काश हम भी अंग्रेजी पढे होते ,पर आज मेरे हिंदी माध्यम वाले सहपाठी तुलनात्मक ज्यादा सफल है.पढाई मातृभाषा में ही ठीक तरीके से होती है जिस दिन अंग्रेजी सीखनी हो दो महिने लगते है,अंग्रेजी एक भाषा है इसे ज्ञान का दर्जा देना गलत है
Kakeshjee,
Aapne to bilkul mere pdhne aur shuruati naukari karane ke dinon ke jakhmon ko taja kar diya. Mujhe bhi aisa hi anubhav hai. Main apne poorvanchal se padha, angrej aur angreji donon se kisi had tak nafrat karate hua badha. Main to engineering ke duaran apne roommate (uski angreji mere se achhi thi us samay) se puchha karata tha ki “is angreji ke shabd ka kya matlab hoga”. Finally vo mujhe ek Longman ki dictionary la ke de gaya ki ise pdha kar. Mujhe vah english to english dictionary bhi samajh mein n aave, to vah mere liye bhargav vali english to hindi dictionary le aaya.
Khair, pahale maine Delhi mein naukari shuru kiya to yahan ka so called Hindi Bhasha samuday ke longo ko Hindi aur Hindi bolne vala ghonchu lagata tha. Voh to Achha huaa, Bangalore mein naukari mil gayi, jahan log Hindi kafi achhi tarah se samajhte the aur kafi help karane vale the. Bangalore mein maine ek baar rasta puchha tha kahin jane ke liye, vo banda apne scooter par le jakar vahan pahuncha ke aaya, Delhi mein to kisi se aisi ummid hi karana byarth hai. Vaise yah ghatna kafi purani hai, 1993 ki. Pata nahin ab kaisa mahol hai.
Is achhi si post ke liye dhanyavad.
Dear Sir,
Very thanks to you that you have shown the things which are absolutely correct. What problems you have faced that is facing by maximum up board’s students, who are belonging in village. Like you, I have faced same thing in my carrier. I have many times qualified IAS pre- exam but my copy couldn’t check due to English. I lost all my hope after that I have got Hindi lecture job with NVS. Here having modern knowledge I couldn’t get respect for which I was write person. Then I under stood that there are two face one for people and another for self. So mentally I accepted English and endeavor to speak English whatever could. Now due to my third class English people are giving so much respect with fear. They are thinking I have very good English knowledge as well as Hindi. I think this is reality of elite Indian society. So we can pressure on up government that English should be made compulsory from beginning (First) class.
aapka blog padha auron ke bhi padhe par jo bilkul apni vyatha ki gatha kehta ho wo aapke lekh me dekhne ko mila.. aaj ke professional yug me angreji ka gyan hona ati awashayak hai..verna sabse jyada gyan hone par bhi aap use angreji me nahi vyakt kar sakte to aapki knowledge bekaar hai aisa maine bhi mehsoos kiya..isliye mai aapki baat se purntaya sehmat hoon..
mujhe eanglish likhna sikhna hai aap meri maddh kare
Dear Kakeshji
If You happen to get across euttaranchal.com,forum in memories from Uttaranchal,my article “abolition of English”written with name Happy 2008, you will find similar sentiments as you have expressed in your blog.Most of we Uttaranchalies are in the same boat and carrying the burden of the imprudent decision taken by the then Government, of abolishing English from the curricullum way back in 1964-65.
This is the irony some people for their vested intersts, donot even hesitate in selling the future of their own offsprings.
Dhanyabaad.
Dayadhar sharma
09221232820
sir bade majedar tarike se likhte hai aap. aap kaun se seher mai rehte the jahan apko suggest ki gayi books nahi milti thi