प्यार की निष्ठाओं पर उठते सवालों के बीच रहता हूँ इस घर में
शब्द ,जब मौन की धरातल पर सर पटक चुप हो जायें
आस्था, जब विडम्बना की देहली पर दस्तक देने लगे
गीली आँखों के कोने में कोई दर्द , बेलगाम पसरा हो
तनहाइयां ,जब चीख के बोलना भूल जायें
आसमान ,अपनी स्वतंत्रता के अहसास को कोसने लगे
बर्बादियों से रिश्ता कायम करना आसान हो जाये
अंगुलियाँ , तेरे चेहरे से जुल्फ हटाने में भी कांपने लगे
समझा पाओ तो समझाना
कि क्यों
रिश्ते की बुनियाद पर खड़ा महल
आज खंडहर बनने को बैचेन है
प्यार अब ताकता है सिर्फ दीवाल
और पसर कर सो जाते हैं हम
फिर उसी बिस्तर पर
एक दूसरे की ओर पीठ किये
काकेश – 16.04.2007
कुछ देर और पकड़ो आस्था की डोर को…
बस अब थोड़ी ही देर है होने में भोर को….
कविता अच्छी लगी….कहना रह गया था।
बढ़िया कविता, बधाई!!
बहुत सुन्दर!
घुघूती बासूती
बहुत अच्छे काकेश भाई । भावों को अच्छी तरह बाँधा है इस कविता में ।
काकेश जी,
मन के भावों को ज्यों का त्यों रख दिया है आपने
बेजी जी की बात पर ध्यान दें