मेरा पहाड़ से क्या रिश्ता है ये बताना मैं आवश्यक नहीं मानता पर पहाड़ मेरे लिये ना तो प्रकृति को रोमांटिसाईज करके एक बड़ा सा कोलार्ज बनाने की पहल है ना ही पर्यावरणीय और पहाड़ की समस्या पर बिना कुछ किये धरे मोटे मोटे आँसू बहाने का निठल्ला चिंतन.ना ही पहाड़ मेरा अपराधबोध है,ना ही मेरा सौन्दर्यबोध. मेरे लिये पहाड़ माँ का आंचल है,मिट्टी की सौंधी महक है, ‘हिसालू’ के टूटे मनके है, ‘काफल’ को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट पदार्थ है,‘क़िलमोड़ी’ और ‘घिंघारू’ के स्वादिष्ट जंगली फल हैं,‘भट’ की ‘चुणकाणी’ है,‘घौत’ की दाल है,मूली-दही डाल के ‘साना हुआ नीबू’ है,‘बेड़ू पाको बारामासा’ है,‘मडुवे’ की रोटी है ,’मादिरे’ का भात है,‘घट’ का पिसा हुआ आटा है,’ढिटालू’ की बंदूक है,‘पालक का कापा’ है,‘दाणिम की चटनी’ है क्या क्या कहूँ …लिखने बैठूं तो सारा पेज यूँ ही भर जायेगा.मैं पहाड़ को किसी कवि की आँखों से नयी-नवेली दुल्हन की तरह भी देखता हूं जहां चीड़ और देवदारु के वनों के बीच सर सर सरकती हुई हवा कानों में फुसफुसाकर ना जाने क्या कह जाती है और एक चिंतित और संवेदनशील व्यक्ति की तरह भी जो जन ,जंगल ,जमीन की लड़ाई के लिये देह को ढाल बनाकर लड़ रहा है.लेकिन मैं नहीं देख पाता हूँ पहाड़ को तो.. डिजिटल कैमरा लटकाये पर्यटक की भाँति जो हर खूबसूरत दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर अपने दोस्तों के साथ बांटने पर अपने की तीस-मारखां समझने लगता है.
पहाड़,शिव की जटा से निकली हुई गंगा है.कालिदास का अट्टाहास है.पहाड़ सत्य का प्रतीक है.जीवन का साश्वत सत्य है.कठिन परिस्थितियों में भी हँस हँस कर जीने की कला सिखाने वाली पाठशाला है. गाड़, गध्यारों और नौले का शीतल,निर्मल जल है.तिमिल के पेड़ की छांह है,बांज और बुरांस का जंगल है.आदमखोर लकड़बग्घों की कर्मभूमि है.मिट्टी में लिपटे ,सिंगाणे के लिपोड़े को कमीज की बांह से पोछ्ते नौनिहालों की क्रीड़ा-स्थली है.मोव (गोबर) की डलिया को सर में ले जाती महिला की दिनचर्या है.पिरूल सारती ,ऊंचे ऊंचे भ्योलों में घास काटती औरत का जीवन है.
कैसे भूल सकता है कोई ऎसे पहाड़ को .पहाड़ तूने ही तो दी थी मुझे कठोर होकर जीवन की आपाधापियों से लड़ने की शिक्षा.कैसे भूल सकता हूँ मैं असोज के महीने में सिर पर घास के गट्ठर का ढोना ,असोज में बारिश की तनिक आशंका से सूखी घास को सार के फटाफट लूटे का बनाना, फटी एड़ियों को किसी क्रैक क्रीम से नहीं बल्कि तेल की बत्ती से डामना फिर वैसलीन नहीं बल्कि मोम-तेल से उन चीरों को भरना, लीसे के छिलुके से सुबह सुबह चूल्हे का जलाना,जाड़े के दिनों में सगड़ में गुपटाले लगा के आग का तापना,“भड्डू” में पकी दाल के निराले स्वाद को पहचानना. तू शिकायत कर सकता है पहाड़ ..कि भाग गया मैं,प्रवासी हो गया,भूल गया मैं ….लेकिन तुझे क्या मालूम अभी भी मुझे इच्छा होती है
“गरमपानी” के आलू के गुटके और रायता खाने की .अभी भी होली में सुनता हूँ ‘तारी मास्साब’ की वो होली वाली कैसेट …अभी भी दशहरे में याद आते है “सीता का स्वय़ंबर”,“अंगद रावण संवाद”, “लक्ष्मण की शक्ति”.अभी भी ढूंढता हूँ ऎपण से सजे दरवाजे और घर के मन्दिर .अभी भी त्योहार में बनते हैं घर में पुए,सिंघल और बड़े. कहाँ भूल पाऊंगा मैं वो “बाल मिठाई” और “सिंघोड़ी”,मामू की दुकान के छोले और जग्गन की कैंटीन के बिस्कुट.
तेरे को लगता होगा ना कि मैं भी पारखाऊ के बड़बाज्यू की तरह गप मारने लगा लेकिन सच कहता हूं यार अभी भी जन्यू –पून्यू में जनेऊ बदलता हूं,चैत में “भिटोली” भेजता हूं,घुघुतिया ऊतरैणी में विशेष रूप से नहाता हूं ( हाँ काले कव्वा ,काले कव्वा कहने में शरम आती है ,झूठ क्यूं बोलूं ),तेरी बोजी मुझे पिछोड़े और नथ में ही ज्यादा अच्छी लगती है .मंगल कार्यों में यहाँ परदेश में “शकुनाखर” तो नहीं होता पर जोशी ज्यू को बुला कर दक्षिणा दे ही देता हूं .
तू तो मेरा दगड़िया रहा ठहरा.. अब तेरे को ना बोलूं तो किसे बोलूं .तू बुरा तो नहीं मानेगा ना ..मैं आऊंगा तेरे पास.गोलज्यू के थान पूजा दूंगा ..नारियल ,घंटी चढाऊंगा .. बाहर से जरूर बदल गया हूँ पर अंदर से अभी भी वैसा ही हूँ रे ..तू
फिकर मत करना हाँ..मैं अपने पहाड़ को कभी नहीं भूल सकता.
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ना जाने क्या-क्या लिख डाला, ना जाने कितनी नराई लगा बैठा .बहुत से शब्द आपकी समझ में नहीं आये होंगे ना…अभी क्षमा करें ..हो सका तो अर्थ बाद में बताऊंगा.
हमारे लिए भी तो पहाड़ यही सब है। बार बार उस पहाड़ की याद आती है। कई बार मन करता है चलो वापस अपने पहाड़ पर। वो दुनिया कितनी शांत कितनी अलग है।
‘क्वोदा’ की रोटी और ‘कनादी’ का डंक भूल गए आप। 🙂
चिंता न करें, इन शब्दों को समझने वाले आज की तारीख में कम से कम पाँच बंदे तो चिट्ठाजगत में हैं ही।
इसे पढके तो यही लगा कि आप भी अपनी तरह ही पहाड़ी हैं पहाड़ के बारे में ये वो ही लिख सकता है जिसके रस रस में वो बसा हो, रस रस में जो बसा हो वो याद आयेगा तो नराई तो लगेगी ही। अपनी तो उम्र ही इन पहाडो पर बीती है इसलिये आपने जो भी लिखा है उस का इक इक शब्द हमारे ऊपर एकदम फिट बैठता है।
‘हिसालू’ के टूटे मनके है , ‘काफल’ को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट पदार्थ है , ‘क़िलमोड़ी’ और ‘घिंघारू’ के स्वादिष्ट जंगली फल हैं , ‘भट’ की ‘चुणकाणी’ है , ‘घौत’ की दाल है , मूली-दही डाल के ‘साना हुआ नीबू’ है , ‘बेड़ू पाको बारामासा’ है , ‘मडुवे’ की रोटी है ,’मादिरे’ का भात है , ‘घट’ का पिसा हुआ आटा है ,’ढिटालू’ की बंदूक है , ‘पालक का कापा’ है , ‘दाणिम की चटनी’ है क्या क्या कहूँ
आपको ये पोस्ट बिल्कुल नही लिखनी चाहिये थी अब इस बात की नराई दूर होने में मुद्दत लग जायेगी। 🙁
shivani ji’style recreated. well done.
हाँ काकेशजी, शब्द तो बहुत से नहीं समझ में आए, पर यह जरूर समझ में आ गया कि अपनी जड़ों की ‘नराई’ लगती है तो कैसा लगता है। नराई शब्द का तात्पर्य घुघूती बासूतीजी से जाना था।
आपने ऐसा लिखा है मन करता है कि वहीं जाकर बस जाऊँ।
व्यंजन समझ में भले ही न आए हों परंतु बहुत स्वाद लगे हैं। आप अपने संस्मरण यूँ ही परोसते जाएँ।
इसी याद पर घुघुती जी ने भी लिखा था, आशा है आपने पढ़ा होगा। न तो जरूर पढं लें।
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पता नही कहने का साहस नहीं क्योंकि आपने हमारी बिरादरी के लोगों को पहले ही दुरदुरा दिया है लेकिन एक विनम्र सी अरज हे कि अविश्वास न करें पर पहाड़ गैर पहाडि़यों को भी पराए नहीं मानते। वे उन्हें ताकत भी देतें हैं शायद पर हमें तो वे हर बार और विनम्र बनाते हैं।
चलो आज नौराई दिवस ही मना लें । मैं तो आज भी आलू के गुटके, सिंघल, पुऐ बनाती हूँ । दिवाली पर एँपण देती हूँ । मेरे देशवाली पति भी दाडू, पडिया, पलयो, शब्दों का उपयोग करते हैं । आज भी जब वे अचानक आ जाते हैं तो माँ की सुनाई कहानी के अनुसार बोलते हैं, (स्वयं के लिए), ‘को छू रे तू भागवान ना पुछडी ना गाछडी लमालम बीतरहूँ ऊँडी ‘! :)बौजू लहंगे पिछौड व नथ में आपको अधिक भाती हैं सुनकर मुझे भी अपने रंगवाली पिछौड की याद आ गई और याद आई उन्हें रंगने का ढ़ंग !शकुनाखर भी जैसे ….. सुन्दरी घ्वेरे , और बारात जाने के बाद घर में होते स्त्रियों के स्वांग । ओ इजा ओ बौज्यू भी । सिसूण के काँटे भी । 🙂
घुघूती बासूती
Aaj mee thain bhi khud lageen ch aur yaad aani ch neerai ki ajj bhi yaad ch maa thian jab maan ji aur nani ji punguda maan nerai kada cha, aur mianunga dagda main jayun rendu cho , aur phir meri didi ji chay bne kar lende che, kan bhalu lagdu cho kode ki Rotio ghee aur chay. Aaj bhi jab main ghur janu chon ta yehi ummed kardu chon ki koita ho oon pugdiyon maa jakh mere maan ji gham main Neerai kadi che.
भाई धन्यवाद
मैं मिस कर गया था, लिंक भेजने के लिए शुक्रिया. बहुत ही सुंदर लिखा है आपने, तरसा के छोड़ दिया, और लिखिए पहाड़ के बारे में, हम पढ़ना चाहेंगे. थोड़ा थोड़ा चखाने, नाम भर बताने से काम नहीं चलेगा ज़रा ठीक से भर पेट एक दिन पहाड़ी खाना खिलाइए, उसके बाद सैर पर निकलते हैं, चीड़ देवदार और बुरांश के जंगल में….
I really salute you for the love you have for our innocent mountains, the divine region & its unforgettable customs.
Initially, I didn’t know ‘narai’…….. but while going through gradually I could feel it……and what I felt is
literally here for you……
” PATRA TUMHARA NEH SANSKARAN LAGTA HAI…
PANKTI-PANKTI PEEYUSH PREM KA BAHTA HAI;
SHABD-SHABD SAMBODHIT KARTA PRANO KO …
AKSHAR-AKSHAR HAAL TUMHARA KAHTA HAI.”
Pls keep it up…bahut bahut saadhuvaad!!!!
विनय भाई की कविता का देवनागिरि में रूपांतरण : काकेश
पत्र तुम्हारा नेह संस्करण लगता है…
पंक्ति पंक्ति पीयुष प्रेम का बहता है
शब्द शब्द संबोधित करता प्रानों को
अक्षर अक्षर हाल तुम्हारा कहता है.
नराई एक ऐसी अनुभूति है जिसे एक प्रवासी ही सबसे ज्यादा शिद्दत से अहसास कर पाता है। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि हममें से ज्यादातर लोग जब अपनी जङों के पास होते हैं तब हिसालू-काफल, चु्डकानी या डुबके-भात की कीमत को आंक पाना मुश्किल होता है। उसकी बजाय टपकती छतें, मैली धोतियां, गोठ से आती बदबू, गरमियों में पटआंगण में भिनभिनाती मक्खियां, शराब पी कर क्लास में गलत-सलत पढाते मास्साब या दिन रात काम करती ईजा, दीदी, बैणियों की बेगारियों और अपनी कुछ न कर पाने की निराशाएं सामने होती हैं। ऐसे में पराए शहरों की गलियों में भटकते हुए जब पहाङ की नराई लगे तो इन सब को भी याद करना। घर आते-जाते रहना, छूटे घर की साल-दर-साल लिपाई पुताई का इंतजाम कर जाना। आंगन के सूख चुके पेङों की जगह नए पेङ लगा जाना। पहाङों को, घर को भी अपने देस गए बच्चों की बहुत नराई लगती है।
बहुत कोशिश करने के बाद भी नराई का इंग्लिश या हिन्दी में अनुवाद नहीं कर सकता. मुझे लगता है की नराई सिर्फ़ पहाड़ के लोगों को ही लगती होगी 🙂
मेरे एक दोस्त ने कहा की याद, निश्वाश, रेमेम्बेर, कितने ही शब्द नराई एक आस पास हैं मगर नराई वाली “फीलिंग” नहीं है. पर यार काकेश, इस तरह लिखते रहोगे तो शायद पहाड़ से पलायन कर चुके मेरे जैसे अवसरवादी मध्यवर्गीय लोगों की पहाड़ वापस लौटने की दबी हुयी इच्छायें फ़िर से जिंदा हो जायें.
Bahut khus kismat hain wo log jinhe apne roots ki Narai aati hai. Jishe aati hai woh hi iska charam anand le sakte hain. Phir Dev Bhumi ke wasindo se adhik bhagyashali saayad hi is sansaar mein aur koi ho.
Bahut pyari aur purani batein aapne apne dil ka khumar nikal diya aur mujhe aisa laga jaise mai neend mai huin aur sapna dekhh raha huin
Very good & beautiful
Keep it up
bahut sunder likha hai Kakesh ji aapne.. Main Pauri se hoon or kai sabdo ka arth sahi main nahee samj paya par jitna samjha wo gajab ka hai.. akhir dharti to wahi hai or log bhee apne se hee lagte hain..
is tarah ke lekh padhkar lagta hai ke hamara sahitya bhe utkristata ke shikar par hain..
Dhanyabaad aap ka..
Jugraj ro.
Visheshwar Gauniyal
तू तो मेरा दगड़िया रहा ठहरा.. अब तेरे को ना बोलूं तो किसे बोलूं .तू बुरा तो नहीं मानेगा ना ..मैं आऊंगा तेरे पास . गोलज्यू के थान पूजा दूंगा ..नारियल ,घंटी चढाऊंगा .. बाहर से जरूर बदल गया हूँ पर अंदर से अभी भी वैसा ही हूँ रे ..तू फिकर मत करना हाँ..
भाई जी ये आप अपने का आखिर में अच्छी तसली दे बैठे. लेकिन आप सच में पहाड़ से बहुत करीब है आप ने फिर अन्दर का कीड़ा जगा दिया जल्दी ही गांव जाना पडेगा. मेरा जैसे भावनात्मक लोगो को तो क्या सभी को ये नराई अन्दर तक हिला कर रख देगी.
राकेश पसबोला
उतराखंड फ्रैंडस
hello
kakesh bhaii aap ne jo bhi likha hai achha hai isme poore poore hahar dikhate hai
kakesh da tum to yaar bas kamaalle cha
sakar ke kau