[पहाड़ की ठंड का अपना एक अलग ही आनन्द है. इस आनन्द को वही महसूस कर सकता है जिसने इसको जिया है,एक टूरिस्ट की भांति एक-दो दिन के लिये नहीं बल्कि कई दिनों तक. उस पर से पहाड़ी भाषा,जो मूल रूप से कुमांउनी या गढ़वाली बोली के रूप में जानी जाती है,उसकी अपनी अलग ही मिठास है..पहाड़ी भाषा में बोलने वाला यदि हिन्दी भी बोलेगा तो उसका अपना एक अलग ही अन्दाज होगा. उसमें पहाड़ी के शब्द तो आयेंगे ही साथ ही एक नये तरीके के वाक्य-विन्यास की भी रचना होगी. लीजिये आज उसी का एक नमूना प्रस्तुत है.यह एक अधेड अप्रवासी व्यक्ति से की गयी काल्पनिक बातचीत है जो अपने घर को छोड़ कर अपने भाई भतीजों के साथ मैदानी इलाके में रह रहा है.कुछ शब्दों के अर्थ हो सकता है आपकी समझ में ना आयें.हाँलाकि मैने कहीं कहीं शब्दों के हिन्दी पर्याय भी लिख दिये हैं फिर भी कोई समस्या हो तो टिप्पणियो से बतायें. ]
मैने कका से पूछा.कका कुछ पहाड़ की ठंड के बारे में भी बताओ ना.
अब क्या बताऊं भुला.. ठंड वो भी पहाड़ की …सुनके ही जैसे ठंड लग जा रही है हो….गरम कपड़े तो लगभग साल भर निकले ही रहने वाले हुए …थोड़े से द्यो की तोप ( बारिश की बूंदें) क्या पड़ी तो कंबल रजाई सब निकल जाने वाली हुई.पांच पांच किलो की रजाई होने वाली हुई वहाँ तो ….यहाँ कि चाव (कपड़े का टुकड़ा) जैसी रजाई से काम थोड़े चलने वाला हुआ. पंत ज्यू अपना बास्कट निकालने को जैसे तैयार ही ठहरे बल. द्यो पड़ा और उनका बास्कट,बंद गले का कोट निकल जाने वाला हुआ.कानों को मफलर से ढंक कर,हाथों में ऊन के दस्ताने पहने पांडे ज्यू गूड़ की टपुक के साथ घर में चहा पीने वाले ठहरे और ऑफिस में घाम (धूप) सेकते सेकते फसक (गप) मारने वाले ठहरे.काम ना करने के जितने बहाने ले लो उनसे.
‘अब इतने जाड़े में कैसे काम होने वाला ठहरा.हाथ की उंगलियां जैसे पताल चली गयी हैं. मुँह से सांस की जगह भाप निकल रही है.ला हो बिसन सिंह एक चहा और पिला यार.‘ पूरा दिन जैसे चाय पीने और घाम सेकने में ही निकल जाने वाला हुआ.
तेरी काखी (चाची) का हाल भी बुरा हुआ.सुबह उठ कर पहला काम हुआ बाहर पटांगण (आंगन) में चूल्हा जलाना. वो छिलुके से पहले चूल्हा जलायेगी और फिर पानी गरम करने वाले डेक (भगोना) को पानी से भर कर रख देगी. अब उस समय ना तो गैस हुई ना ही पानी गरम करने के लिये गीजर.ये सब तो आजकल के साधन हुए भुला हमारे जमाने में ये सब कहाँ हुआ.फिर नौले से फौंले (तांबे की गगरी) में सर में रखकर पानी लाने वाली हुई तब ताजे पानी से चाय बनने वाली हुई.ज्यादा ठंड हुई तो मेथी भूंट के उसकी चाय बना ली.तू तो तब छोटा ही था रे.तू तो तब सात सात दिन तक बिना नहाये हुए रहने वाला हुआ. बस मुँह धो के स्कूल चला जाने वाले हुआ.
बनियान (स्वेटर) उस समय हाथ से बुनी जाने वाली हुई.यह आजकल के मशीन वाले स्वेटर जो क्या हुए उस समय. पुराने स्वेटरों को उधाड़ कर रंग बिरंगी स्वेटर घर-पन के लिये और बजार के लिये खजूरे के डब्बे जैसी बुनाई वाला स्वेटर. जाड़ों में तो तुम लोगों की छुट्टी हो जाने वाले ठहरी . तू तो भींणे में घाम की झलक दिखी नहीं वहीं पर खड़ा हो जाने वाला ठहरा.
आदमी लोगों के ऑफिस जाने के बाद औरतों का काम जल्दी जल्दी पूरा होने वाला हुआ.औरतें पटांगण में बैठ के भान (बरतन) माजने वाली ठहरी फिर गोरु,बल्द हका के, मोव-वोव निकाल के गुपटाले पाथने वाली ठहरी. सब काम होने के बाद दिन का कुछ समय मिलने वाला हुआ ‘क्वीड़’ (बातें) करने के लिये. उसमे भी एक दूसरे की बुनाई देखने और इधर उधर की कितनी तो बातें हुई. ‘अभी तो महालछ्मी के ऎपण भी देने हैं हो मुन्ना की ईजा. मैं बिस्वार पीस दुंगी फिर साथ ही मिल के दे देंगे.एक दिन तुमारा द्याप्ताथान (मंदिर) हो जायेगा एक दिन हमारा कर देंगे.’ या फिर ‘ चलो रे नीबू सानते हैं …जा रे हरिया एक निमू तोड़ ल्या तो और दुई जाड़ मुलैक लै लिये.’ इकादसी का बर्त (व्रत) हुआ तो मूमफली (मूंगफली) मंगा ली और सब मिलके खाने वाले हुए.
लाई की सब्जी, आलू मेथी की सब्जी, गडेरी की भांग डाली हुई सब्जी,घौत की दाल तो जाड़ों में ही भल (अच्छी) लगने वाली हुई.ब्याव (शाम) होते ही सब लोग अंगीठी जला लेने वाले हुए.घर के बुड़-बाड़नियों के लिये सगड़ में गुपटाले लगा के कोयले के चूरे के लड्डू सिलका देना हुआ.वो आराम से हाथ तापने वाले हुए.
क्या करें भुला अब तो घर में सब कुछ है…हीटर है ,गीजर है सब तरह की सुविधायें हैं फिर भी मन करता है कि जैसे भाग के चले जायें अपने उसी पटाल वाले आंगन में और धूप सेंकने लगें.कोई दही मूली वाला नीबू सान के लाये और उसे चट चट करते हुए खायें.जंबू का धुंगार लगाये हुए भट के डुबके हों, दाणिम की चटनी हो….भांगे का नमक हो…क्या क्या सोचूँ ..क्या क्या इच्छा करूँ …पूरी थोड़े होनी है रे अब इस उमर में..
कका की आँखो के कोने गीले थे. मैं उनसे पूछ्ना चाहता था कि पहाडों में जब बरफ पड़ती है तो कैसा लगता है.लेकिन अभी नहीं फिर कभी पूछुंगा….
इससे पहले की नराई…
बीती यादों को समेटकर अंतस में रखना और उन्हें कतरा कतरा याद करना आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है ।
http://www.aarambha.blogspot.com
My goodness Kakesh!! You are just terrific. Maza aa gaya.
Kakesh bhai,
bahut hi achchha likha hai. Hope you will keep writing such nice blogs for us
वाह क्या शिल्प है। बहुत अच्छे।
बहुत बढ़िया । आपके लेख को पढ़कर जोशी जी की कसप याद आ गई । सच , मज़ा आ गया । कका से पहाड़ों की बरफ की कथा भी सुना डालिये न ।
अच्छा है! बहुत अच्छा है!! बहुत ही अच्छा है!!! आपकी कल्पना अति सुंदर और यथार्थ के करीब मसूस होरही है.
लगता ही नही जैसे कोई काल्पनिक वार्तालाप हो. बहुत सुंदर. बधाई.
दिल जलता है, जी येसी कहानी पढ़कर. पहाड़ की सर्दी अपनी आंखों से देखेंगे, तो मानेंगेजी। काश हम होते वहां।
kaakesh ji kirpaya apna parichay de …..
darshan
पुराणिक जी से सहमत हूँ….काश हम भी वहीं होते….
good work!
प्रवासी मनोभावों का सुन्दर चित्रण:
मन करता है कि जैसे भाग के चले जायें अपने उसी पटाल वाले आंगन में और धूप सेंकने लगें
–सच..मजा आ गया पढ़कर, मित्र काकेश.
मुंबई में सब कुछ है पर यह ठंड नहीं….सच में पहाड़ पर आने की इच्छा जगादी आपने
काकेश यह क्या। मैं तो हल्का-फुल्का पढ़ने का भाव ले कर आया था। पर जैसे जैसे पढ़ता गया – सब स्मृत-विस्मृत सामने आने लगा। बन्धु हर एक में यह कका है। खजाना है विगत का। और बस उसमें लौट जाने का मन होता है।
बहुत सुन्दर। क्या बतायें इस मनोभाव को व्यक्त करने की कोई स्माइली भी तो नहीं बनी शायद।
काकेशजी, ऐसा चित्र खींचा है कि मुझे भी अपना बचपन और घर याद आ गया।
दाज्यू मजा आ गया ये पढ़कर, अब ऐसी ही ठंड होने वाली ठेरी वहाँ पर। लेकिन दाज्यू ऐसी ठंड में भी, मुँगफली के साथ रामलीला देखने में जो मजा आने वाला ठेरा उसका तो जवाब ही नही। अंतिम पैरा में जो बात कही है, अब उसके मजे कैसे लिये जायें।
काकेश एक बार फिर छा गये।
बहुत अच्छे !
जब मैंने कसप के बारे में लिखा था तब कुमाँउनी हिंदी मन में छा सी गई थी। अब यही देखिए एक नव आगुंतक के परिचय लिए जाने का कुमाऊँनी तरीका…..
“‘कौन हुए’ का सपाट सा जवाब परिष्कृत नागर समाज में सर्वथा अपर्याप्त माना जाता है। यह बदतमीजी की हद है कि आप कह दें कि मैं डीडी हुआ। आपको कहना होगा, न कहिएगा तो कहलवा दिया जाएगा, मैं डीडी हुआ दुर्गादत्त तिवारी, बगड़गाँव का, मेरे पिताजी मथुरादत्त तो बहुत पहले गुजर गए थे, उन्हें आप क्या जानते होंगे, बट परहैप्स यू माइट भी नोइंग बी.डी तिवारी,वह मेरे एक अंकल ठहरे…..वे मेरे दूसरे अंकल ठहरे।
उम्मीद करनी होगी कि इतने भर से जिज्ञासु समझ जाएगा। ना समझा तो आपको ननिहाल की वंशावली बतानी होगी।
किस्सागोई की कुमाऊँ में यशस्वी परंपरा है। ठंड और आभाव में पलते लोगों का नीरस श्रम साध्य जीवन किस्सों के सहारे ही कटता आया है। काथ, क्वीड, सौल-कठौल जाने कितने शब्द हैं उनके पास अलग अलग तरह की किस्सागोई के लिए! यही नहीं, उन्हें किस्सा सुनानेवाले को ‘ऐसा जो थोड़ी”ऐसा जो क्या’कहकर टोकने की और फिर किस्सा अपने ढ़ंग से सुनाने की साहित्यिक जिद भी है।”
Dajyu,
Very nice, apki kahani padhkar pahad ki yaad aa gayi.
Thanks
काकेश , वाह ! तुमने तो गजब कर दिया। कैंजा , जेठजा रह गईं, बड़बाज्यू भी ! मजा भी आया आँखों में नमी भी । चेला, तुम तो शब्दों के जादूगर ठहरे । और क्या कहूँ ? मन कर रहा है दूनागिरी चली ही जाऊँ। नौले का पानी पीयूँ । मैं भी तो कुमाँऊनी ठहरी । काका की बात याद आती है .. हम तो हिमान्चाऔ च्याड़ भया । हम भाँभर में जमीन लेकर क्या करने वाले ठहरे ?
काकेश, यूँ ही चीड़ के छिलुक जलाकर मेरी यादों को उजयारा करते रहो। मन करता है भागकर पहाड़ चले
जाऊँ ।
घुघूती बासूती
बहुत बढ़िया काकेश जी!!
मजा आ गया!!
bahut achha likhate ho jee
शब्द साथ नहीं दे रहे, आंखों में पानी भर गया, बस एक ही गाना याद आ रहा है,
छ्ण-छण आंसू आंई, तेरी याद मां,
रंगीलो पहाड़ छूटोऽऽऽऽ, सुवा, द्वी रोटि कारण ले…..।