आजकल हिन्दी ब्लॉगजगत में क्रांति का माहोल है,हाँलाकि कुछ लोगों का मानना है कि चिट्ठे क्रांति नहीं ला सकते…पर फिर भी कोशिश जारी है.कुछ लोग जन्मजात क्रांतिकारी होते है और कुछ लोग किताबें पढ़कर क्रांतिकारी हो जाते हैं.आज आपके सामने हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य प्रस्तुत है.जो एक “क्रांतिकारी की कथा” है. इसमें “चे-ग्वेवारा” का नाम भी आया है तो इन महानुभाव के बारे में थोड़ा बता दूं. अर्जेंटीना में जंन्मे “चे-ग्वेवारा” मार्क्सवादी क्रातिकारी थे.पेशे और पढ़ाई से वो डॉक्टर थे लेकिन उन पर मार्क्स साहित्य का गहरा प्रभाव पढ़ा और वे फीदेल कास्त्रो की क्रातिकारी सेना में सम्मिलित हुए.उन्होने कई पुस्तकें भी लिखी जो मूलत: स्पैनिश में थी पर उनके अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में भी खासे अनुवाद हुए.तो ये तो था चे-ग्वेवारा का परिचय.अब आप व्यंग्य का आनन्द लें.
क्रांतिकारी की कथा : हरिशंकर परसाई
‘क्रांतिकारी’ उसने उपनाम रखा था। खूब पढ़ा-लिखा युवक। स्वस्थ,सुंदर। नौकरी भी अच्छी। विद्रोही। मार्क्स-लेनिन के उद्धरण देता, चे-ग्वेवारा का खास भक्त। कॉफी हाउस में काफी देर तक बैठता। खूब बातें करता। हमेशा क्रांतिकारिता के तनाव में रहता। सब उलट-पुलट देना है। सब बदल देना है। बाल बड़े, दाड़ी करीने से बढ़ाई हुई। विद्रोह की घोषणा करता। कुछ करने का मौका ढूंढ़ता। कहता- “मेरे पिता की पीढ़ी को जल्दी मरना चाहिए। मेरे पिता घोर दकियानूस, जातिवादी, प्रतिक्रियावादी हैं। ठेठ बुर्जुआ। जब वे मरेंगे तब मैं न मुंडन कराऊंगा, न उनका श्राद्ध करूंगा। मैं सब परंपराओं का नाश कर दूंगा। चे-ग्वेवारा जिंदाबाद।”
कोई साथी कहता, “पर तुम्हारे पिता तुम्हें बहुत प्यार करते हैं।”
क्रांतिकारी कहता, “प्यार? हॉं, हर बुर्जुआ क्रांतिकारिता को मारने के लिए प्यार करता है। यह प्यार षडयंत्र है। तुम लोग नहीं समझते। इस समय मेरा बाप किसी ब्राह्मण की तलाश में है जिससे बीस-पच्चीस हजार रुपये लेकर उसकी लड़की से मेरी शादी कर देगा। पर मैं नहीं होने दूंगा। मैं जाति में शादी करूंगा ही नहीं। मैं दूसरी जाति की, किसी नीच जाति की लड़की से शादी करूंगा। मेरा बाप सिर धुनता बैठा रहेगा।”
साथी ने कहा, “अगर तुम्हारा प्यार किसी लड़की से हो जाए और संयोग से वह ब्राह्मण हो तो तुम शादी करोगे न?”
उसने कहा, “हरगिज नहीं। मैं उसे छोड़ दूंगा। कोई क्रांतिकारी अपनी जाति की लड़की से न प्यार करता है, न शादी। मेरा प्यार है एक कायस्थ लड़की से। मैं उससे शादी करूंगा।”
एक दिन उसने कायस्थ लड़की से कोर्ट में शादी कर ली। उसे लेकर अपने शहर आया और दोस्त के घर पर ठहर गया। बड़े शहीदाना मूड में था। कह रहा था, “आई ब्रोक देअर नेक। मेरा बाप इस समय सिर धुन रहा होगा, मां रो रही होगी। मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को इकट्ठा करके मेरा बाप कह रहा होगा ‘हमारे लिए लड़का मर चुका’। वह मुझे त्याग देगा। मुझे प्रापर्टी से वंचित कर देगा। आई डोंट केअर। मैं कोई भी बलिदान करने को तैयार हूं। वह घर मेरे लिए दुश्मन का घर हो गया। बट आई विल फाइट टू दी एंड-टू दी एंड।”
वह बरामदे में तना हुआ घूमता। फिर बैठ जाता, कहता, “बस संघर्ष आ ही रहा है।”
उसका एक दोस्त आया। बोला, “तुम्हारे फादर कह रहे थे कि तुम पत्नी को लेकर सीधे घर क्यों नहीं आए। वे तो काफी शांत थे। कह रहे थे, लड़के और बहू को घर ले आओ।”
वह उत्तेजित हो गया, “हूँ, बुर्जुआ हिपोक्रेसी। यह एक षडयंत्र है। वे मुझे घर बुलाकर फिर अपमान करके, हल्ला करके, निकालेंगे। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो मैं क्यों समझौता करूं। मैं दो कमरे किराए पर लेकर रहूंगा।”
दोस्त ने कहा, “पर तुम्हें त्यागा कहां है?”
उसने कहा, “मैं सब जानता हूं- आई विल फाइट।”
दोस्त ने कहा, “जब लड़ाई है ही नहीं तो फाइट क्या करोगे?”
क्रांतिकारी कल्पनाओं में था। हथियार पैने कर रहा था। बारूद सुखा रहा था। क्रांति का निर्णायक क्षण आने वाला है। मैं वीरता से लडूंगा। बलिदान हो जाऊंगा। तीसरे दिन उसका एक खास दोस्त आया। उसने कहा, “तुम्हारे माता-पिता टैक्सी लेकर तुम्हें लेने आ रहे हैं। इतवार को तुम्हारी शादी के उपलक्ष्य में भोज है। यह निमंत्रण-पत्र बांटा जा रहा है।”
क्रांतिकारी ने सर ठोंक लिया। पसीना बहने लगा। पीला हो गया। बोला, “हाय, सब खत्म हो गया। जिंदगी भर की संघर्ष-साधना खत्म हो गयी। नो स्ट्रगल। नो रेवोल्यूशन। मैं हार गया। वे मुझे लेने आ रहे है। मैं लड़ना चाहता था। मेरी क्रांतिकारिता! मेरी क्रांतिकारिता! देवी, तू मेरे बाप से मेरा तिरस्कार करवा। चे-ग्वेवारा! डियर चे!”
उसकी पत्नी चतुर थी। वह दो-तीन दिनों से क्रांतिकारिता देख रही थी और हँस रही थी। उसने कहा, “डियर एक बात कहूँ। तुम क्रांतिकारी नहीं हो।”
उसने पूछा, “नहीं हूँ। फिर क्या हूँ?”
पत्नी ने कहा, “तुम एक बुर्जुआ बौड़म हो। पर मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।”
( कैसी लगी ये रचना ..टिप्पणी के द्वारा बतायें)
हाहा! क्रान्तिकारी होने का सच्चा अर्थ आज समझा है। 😉
काकेश मियां, लोगों को तिलमिला देनेवाला मसाला ढूंढ़के लाना था तो तुम लेके आए ये फुसफुसा पिटा-खा.. हद है.. इससे क्रांति-स्रांतिकारी की फुलझड़ी नहीं छूटती.. एक फिसलन बनती है मगर कोई गिरता नहीं, किसी को चोट नहीं लगती..
सुधर जाओ पहले ही तुम मोदी,हिन्दुत्व से नवाजे जा चुके हो,इतने दिन से यही ढूढ रहे थे…?
ये क्रांती तो यहा भाइ लोग रोज करते है,अब ये गलत बात है कि तुम उसे चौराहे पर आकर गा गा कर बताओ 🙂
क्रांति-स्रांति गयी चोर के. ये बहुत मस्त मसाला है. ऐसा ही लाते रहो. ये अज़दक की मत मनना. ये खुद तो अज़दकी मुद्रा में शेषशायी अन्दाज में लेटे हैं और चाहते हैं बाकी सारे रपट-रपट के गिरें!!! 🙂
काकेश मित्र
परसाई जी के तो हम हमेशा से मुरीद रहे है. यहाँ देखकर बड़ा अच्छा लगा आखिर हमारे शहर जबलपुर की बात ही निराली है. 🙂
आभार इस पेशकश के लिये.
पहले भी पढ़ी थी.. फिर पढ़ के भी मजा आया..
मस्त!!
परसाई जी की और रचनाएं लाएं ।
वाह क्या शानदार कहानी लाए, मजा आ गया पड़कर। जबरदस्ती क्रांतिकारी कैसे बनते हैं ये भी पता चला। 🙂
परसाई जी का तमाम साहित्य अद्भुत है . पढ़ चुके हैं पर फिर फिर पढेंगे .