मेरी टिप्पणी वाली पोस्ट पर विस्तृत टिप्पणीयाँ थमने का नाम ही नहीं ले रही. कल जब सोच रहा था कि शायद अब यह सिलसिला थम गया होगा तो आज सुबह देखा एक और बड़ी टिप्पणी आयी. यह टिप्पणी क्या ..यह तो किसी पोस्ट से भी बड़ी है. यह भी छ्द्म नाम से की गयी है ….किन्ही बहन जी द्वारा.यहाँ पर यह बता दूँ कि यह बहन जी एक टिप्पणी पहले भी कर चुकी हैं… जिसमें इन्होने रंजना जी के लिये अपशब्द कहे थे. इसलिये वो टिप्पणी मैने सार्वजनिक नहीं की. वैसे आज की टिप्पणी कहीं से कॉपी की हुई लगती है… लेकिन है अच्छी इसलिये आप भी पढिये.
[ बाद में जोड़ा गया: रचना जी ने बताया कि यह टिप्पणी यहाँ से चुरायी गयी है. इस लेख पर अधिकार मूल लेखक/लेखिका के हैं. पूरी समीक्षा आप यहाँ क्लिक कर पढ़ें ]
मिथिलेश वामनकर अपनी समीक्षा में क्या कहते हैं. यह आपको पढ़ना चाहिए.
यह रेखांकित करने लायक बात है कि अब स्त्री अपने जीवन के असंख्य क्लेशों का इतिहास अपनी ही जुबानी बताने को तत्पर है। एक जद के साथ उसे यह घोषित करना पड रहा है कि इतनी बडी दुनिया में उसकी अनुभूतियों को कोई स्थान नहीं मिल पा रहा है। महादेवी वर्मा ने लिखा है –
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
मैं नीर भरी दुःख की बदली –दूसरी ओर प्रसिद्ध नारीवादी लेखिका वर्जीनिया वुल्फ को जब इंग्लैण्ड के विश्वविद्यालय में उद्बोधन के लिये आमंत्रित किया गया तो उन्होंने कहा ‘मैं पहले अपने कमरे के विषय में बोलना चाहती हूँ।’ श्रोताओं की शंका का समाधान करते हुए फिर उन्होंने बताया कि इसका महिला लेखन से गहरा सम्बन्ध है क्योंकि कोई जगह होनी चाहिए जहाँ वे बैठ कर अपनी मानसिक दुनिया के सुख-दुःख और संघर्षों पर अपने आपसे विमर्श कर सके।’ दो बडी लेखिकाओं की यह पीडा दर्शाती है कि स्त्री होने के कारण ही उनकी कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ थीं जो सभ्य समाज पर सबसे बडा प्रश्नचिह्न लगाती हैं। किसी सभ्य समाज के विकास की प्रक्रिया में स्त्री को अलग-थलग ही नहीं बल्कि ‘हेय’ माने जाने के कुछ और भी उदाहरण मिलते हैं जैसे क्यूसीडायडीज की सम्मति थी कि ‘जिस प्रकार किसी सभ्य स्त्री का शरीर उसके मकान के अन्दर बन्द रहता है वैसे ही उसका नाम भी बंद रहना चाहिए।’ सुकरात यह मानते थे कि नारी सभी बुराइयों का मूल है, उसका प्यार पुरुषों की घृणा से अधिक भयावह है। अरस्तु के अनुसार ‘नारी की तुलना में पुरुष स्वभावतः श्रेष्ठ होता है क्योंकि नारी इच्छा शक्ति में निर्बल, नैतिकता में शिथिल और विचार-विमर्श में अपरिपक्व होती है।’
‘मनु’ के अनुसार तो स्त्री के लिये पति सेवा ही गुरुकुल में वास और गृहकार्य अग्नि होम है –
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने ।
रक्षन्ति स्थविरै पुत्रा न स्त्री स्वतन्भ्यमर्हति ।
इस तरह सारे विधि, शास्त्र और व्यवस्था में स्त्री अपनी देह की ही ‘अनधिकारिणी’ होती है जैसे वह देह उसकी नहीं किसी एक व्यवस्था की है, जिसका संचालन पुरुष प्रधान समाज के हाथों में है। स्त्रियाँ स्वयं भी यह अनुभव करती हैं और स्त्री विमर्श में भी यह चिन्ताएँ सामने आई हैं कि स्त्रियाँ दुनिया को अपनी नहीं पुरुष की आँखों से समझना और भोगना चाहती हैं। वे स्त्रियाँ जो पुरुष की ‘अनुकम्पा’ पर जीवन बसर करना अपनी ‘नियति’ मानकर स्वीकार कर चुकी हैं, उनकी ‘गिरवी’ रखी हुई आत्माओं पर किसी प्रकार का बोझ नहीं है। संकट उन प्रश्नाकुल स्त्रियों का है जो अपनी तयशुदा भूमिका और निर्धारित प्रायोजित और आदेशात्मक शब्दावली से आहत और अघायी हुई हैं। उनकी दिक्कत यह है कि वे अपने आपसे प्रश्न पूछने लगी हैं ‘ जैसे कि स्त्री के जन्म से मृत्यु तक के मसले ‘हाँ’ और ‘ना’ के बीच क्यों तैरते हैं ‘ क्यों लडका ‘चिरंजीवी’ और लडकी ‘सौभाग्यकांक्षिणी’ कहलाती हैं। सौभाग्यवती होकर जीना यदि स्त्री की पहली खुशी है तो वह सौभाग्य भी उसे सही अर्थों में प्राप्त क्यों नहीं है ‘ ऐसी ‘सौभाग्यशाली’ को दहेज के कारण जला देना ‘गलत’ नहीं है ‘ क्या यह ‘सही’ है कि स्त्री को बुद्धिमान न माना जाए ‘ ‘देह’ से शुरू होकर ‘देह’ पर ही उसकी इति मान ली जाए ‘ यह सारा झगडा अन्तहीन भी इन्हीं कारणों से बना हुआ है कि कुछ तो स्त्री जीवन का इतिहास और वर्तमान विडम्बनाओं और अन्तर्विरोधों से भरा है, दूसरा पुरुष प्रधान समाज का सोच भी संकीर्णताओं से घिरा हुआ है। पता ही नहीं चला कि कब स्त्री को व्रत, अनुष्ठान,श्रंगार-सिन्दूर, पायल, बिछिया, बिन्दी, चूडी और मेहन्दी रंगे हाथों में बाँधकर उसकी देह पर कब्जा कर लिया गया। फिर मोहाविष्ट होकर स्त्री ने इसी खेल को अपना ‘सौभाग्य’ मान लिया। भोग्या बनकर वह स्वयं से प्रश्न पूछने से भी डरने लगी। कभी यह पूछने का साहस ही नहीं जुटा पायी कि ‘क्या मेरी संवेदनाओं, मेरी इच्छाओं, मेरी बुद्धि का किसी को पता चला ‘ क्या मैं भी अपने मन में बसी हजारों हजार इच्छाओं में किसी एक ‘इच्छा’ को व्यक्त करूँ ‘ क्या ‘मैं’ अपनी ‘सरीखी’ संरचना को जन्म दूँ ‘
सारे विमर्श के केन्द्र में मुख्य चिन्ता यही है कि ‘आखर स्त्री का वजूद, उसका अस्तित्व क्या है ‘ क्या कोई रास्ता है जिस पर वह आजादी से चल सके ‘
स्त्रियों के संघर्ष, उनके उत्पीडन, उनकी छटपटाहट से साहित्य जगत् में भी हलचल होती रही है। इसकी पहली अनुगूँज (कहानी में) बंग महिला (राजेन्द्र बालाघोष) की ‘कुम्भ में छोटी बहू’ और ‘दुलाईवाली’ कहानी में सुनाई देती है। इस प्रकार के लेखन की सबसे बडी विशेषता तो यही थी कि लेखिकाओं ने समाज के शक्ति केन्द्रों पर निशाना साधा था। यह सच उतना ही पारदर्शी है जितने में स्त्री अपनी भाषा और अपने भोगे हुए यथार्थ को अपनी रचनाओं में व्यक्त करे, गोया रचना को ही ‘आइना’ बना ले। लेखिकाओं ने अपनी रचनाओं में जिस स्वानुभूत सच्चाइयों को उजागर किया वे कुछ ज्वलन्त प्रश्नों को जन्म देती हैं। इस संदर्भ में महिला लेखन की परख करना जरूरी है क्योंकि इनके लेखन में स्त्री जीवन की चिन्ताएँ सामाजिक, आर्थिक, कानूनी और पितृ सत्तात्मक व्यवस्था के मुद्दों के रूप में विश्लेषित हुई हैं। यह सच ही है कि महिला लेखन में लगातार कुछ नया और उद्वेलित करता हुआ सच उद्घाटित हो रहा है। सबसे बडी चिन्ता तो यही है कि सम्पूर्ण सामाजिक और पारिवारिक ढाँचे में स्त्री को जगह तलाश करना। एक बडी साजिश यह हुई है कि स्त्री के मन को उसकी देह से पृथक कर दिया गया है। एकबारगी देखने से ऐसा लगता है कि उसकी आत्मा को मारकर, सोच की शक्ति को कुचलकर केवल देह को ही केन्द्र में रखा गया है। स्त्री-देह के प्रति पुरुष वर्ग का यह षड्यन्त्र वोल्गा की ‘राजनैतिक कहानियाँ’ नाम के संग्रह में खुलकर सामने आया है। स्वयं लेखिका की स्वीकारोक्ति है कि ‘शरीर के शोषण से स्त्री को मानसिक रूप से दमित रखना, उसके व्यक्तित्व के विकास को रोककर उसके शरीर को नियंत्रित रखना एक गहरी राजनीति है जो पुरुष प्रधान समाजों के मूल्यों के साथ गुँथी हुई है। अपना निजी काम समझकर जिसमें स्त्रियाँ अपनी पूरी ऊर्जा उण्डेल देती हैं वे काम दरअसल उनके लिये नहीं होते।
समाज की धारणा है कि शरीर तथा मन दो अलग-अलग ईकाइयाँ हैं और वह अवसर के अनुसार कभी मन तो कभी शरीर को अहमियत देने लगता है। लेखिका का मानना है कि हम अपने शरीर से अलग नहीं हैं, अब इस बात को स्पष्ट रूप से कहना अनिवार्य है। वोल्गा ने पूरी संवेदनशीलता के साथ आँख, कान, नाक, बाल आदि यानी स्त्री को पूरी देह की क्षमताओं को पुरुष और स्त्री तथा स्त्री और परिवार के सम्बन्धों की कसौटी पर परखा है। वोल्गा ने अपनी सभी कहानियों में उन अनुभवों की हिस्सेदारी की है जो कटु और यथार्थ है। इस रूप में कि स्त्री शोषण का मुख्य आधार शारीरिक दृष्टि से ही अधिक है। संग्रह की पहली कहानी ‘सीता की चोटी’ पढकर ऐसा लगता है कि स्त्री को सभी काम सामाजिक दिखावे, रीति-रिवाजों के निर्वहन पति, बच्चों आदि के लिये करने पडते हैं। बालों की देखभाल, उनका लम्बा और सुन्दर होना, उनमें फूल लगाना, चोटी बनाना कब उचित और कब अनुचित हो जाता है, इसका निर्णय सीता के हाथ में कभी रहा ही नहीं। पति गुजरा नहीं कि सिर मुण्डवाने का दबाव पडता है। अगर बाल सँवारने का काम सीता स्वयं के आनन्द के लिये करती है तो पति की मृत्यु के बाद क्यों नहीं कर सकती ‘ जीवन के उत्तरकाल में जबकि बाल सफेद हो गए, झडने लगे तब उसे समझ में आने लगा कि अपने बालों पर ही उसका हक नहीं है तो फिर औरत की पूरी देह पर कितनी क्रूरता से औरों का हक जम जाता होगा ‘
‘आँखें’ कहानी में स्त्री स्वाधीनता के प्रश्न को उठाया गया है। लडकियाँ बचपन से ही समाज द्वारा बनाए गए साँचे में ढाल दी जाती हैं। लडकियों पर बहुत से निषेध थोप दिये जाते हैं। लडकी और लडके के भेद को इस कहानी में बडी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। किसी भी लडकी की आँखें कितनी भी सुन्दर और बडी क्यों न हो वह दुनिया नहीं देख सकती, उस पर पुरुष प्रधान परिवार के लाख पहरे हैं। जबकि राम अपनी छोटी-छोटी आँखों से दुनिया देख सकता है, खा सकता है, घूम सकता है, खेल सकता है। ‘लडकी’, ‘लडकी’ ही बनी रहे इसमें स्त्रियों की दासता जनित सोच भी जम्मेदार है। उसे माँ ने डाँटा ‘क्या इधर- उधर देखती रहती है। सर नीचा करके चलो। लडकी की निगाहें हमेशा नीची ही रहनी चाहिए।’ कथ्य में जो उद्वेलन है वह प्रश्नों के रूप में बार-बार कौंधता है जैसे ‘देखने के बाद कुछ तो करना चाहिये नहीं तो देखने का क्या फायदा’ देखने के पहले, देखने के बाद भी एक जैसा रहेंगे तो देखना ही क्यों ‘
महिलाएँ अपने दैहिक सौन्दर्य के प्रति कितनी सचेत हैं इससे भी अधिक चिन्ता उन लोगों को है जो स्त्री को केवल दैहिक आधारों पर परखते हैं। रमा की नाक ‘बेसरी’ कहानी में चर्चा का विषय है और प्रकारान्तर से लेखिका ने यह चिन्ता व्यक्त की है कि रमा के साथ जो हो रहा है वह गलत है। रमा की नाक का छेद और दाग सबको दिखाई देता है किन्तु कोई यह समझने को तैयार नहीं है कि वह कितनी शिक्षित है, उसके मन में इस बात की कितनी नाराजगी है कि ‘अब वैसा जमाना हो गया कि विवाह के लिये वर पक्ष वालों की इच्छानुसार वधुओं को अवयव बदलने पडेंगे। अब तक हर लडके वालों ने रमा की नाक के छेद पर टिप्पणी की तो पिता ने उसकी नाक की सर्जरी करवायी। फिर एक रिश्ता आया है। दहेज तय हो गया। वर पक्ष वाले खुश हैं। बस सत्यनारायण की एक ही इच्छा है कि लडकी की नाक में बेसरी हो। बेसरी पहनने के लिये फिर नाक में छेद करवाना। किन्तु रमा ने तय किया – ‘अब बिलकुल नाक में छेद नहीं करवाऊँगी। यह शादी रुक जाएगी तो रुकने दो।’ विडम्बना यह है कि पहले लडके वालों की आपत्ति हुई तो नाक का छेद बंद करवाया। अब फैशन है और लडका चाहता है लडकी नाक में बेसरी तो फिर से ……. ।
जानकी के दिमाग की सबसे बडी उलझन यही है कि क्यों उसे मुँह बन्द करने के लिये कहा जाता है जबकि उसके भाई जोर-जोर से चिल्लाते हैं। ‘मुँह बन्द करो’ कहानी स्त्री के दिमाग पर चोट करती है क्योंकि ‘शब्द मुँह से निकलते हैं पर उनका जन्म तो दिमाग से होता है।’
स्त्रियों में अपने शरीर और शरीर धर्मों के प्रति हीन भावना पैदा करने की जम्मेदारी पितृसत्तात्मक समाज की है। शिक्षक, नजदीक के रिश्तेदार, पति, पिता, भाई इन सभी के दुर्भावनापूर्ण व्यवहार से क्षुब्ध स्त्री को अपना जन्मना ही ‘पाप’ लगने लगता है। इस संकलन की ‘दीवारें’, ‘रक्षक’ ‘क्या करना चाहिए’ आदि कहानियों में महिलाओं की अवास्तविक जंदगी का दारुण दुःख व्यक्त हुआ है। पुरुष प्रधान समाज की इस राजनीति को समझना होगा कि परिवार में उनको विभाजित करके रखा जाता है। सास, ननद, बहू, जेठनी, देवरानी के झगडे करवाये जाते हैं। घर में वे मित्र नहीं शत्रु की तरह रहती हैं। लेखिका का इशारा इस ओर भी है कि स्त्रियों को इन कहानियों को पढकर अपने ‘भ्रम’ दूर कर लेने चाहिये। प्रेम, वात्सल्य, कर्त्तव्य और जम्मेदारी के नाम पर उसे ‘घर’ देकर पुरुष अपने राजनैतिक खेल खेलता है। यह राजनीति ‘घर’ और ‘सुरक्षा’ के नाम पर खेली जाती है जहाँ निरन्तर स्त्री के आत्मगौरव को ठेस पहुँचाती रहती है। ‘पत्थर के स्तन’ कहानी का टीचर और मामा, ‘एक राजनीतिक कहानी’ का पति, ‘आर्ति’ कहानी के माँ और पिता, ‘विवाह’ कहानी की सामाजिक परम्परा की अनिवार्यता आदि में स्त्री के विचार, भाषा, अनुभूति सब कुछ कुचलकर उसे स्त्री-गरिमा की कई सीढयों से नीचे धकेल दिया गया है। एक तथ्य इसमें अन्तर्निहित है और वह यह कि देह के भीतर बसे मन और बुद्धि में जो स्वतंत्रता और आत्मबोध का ज्ञान है वह पितृसत्ता को चुनौती देता है। देह के प्रति अनाधिकृत आकर्षण और फिर उस पर मनचाहा नियंत्रण, यही लोगों का मुख्य ध्येय है।
स्त्री और स्त्री समुदाय की दासता के कितने रूप समाज में बिखरे पडे हैं, उन पर भी ध्यान देने की जरूरत है। हम जब भी अपनी सुप्त चेतना को झकझोरते हैं तो इस सत्य को जान पाते हैं कि स्त्रियों से सम्बन्धित कई धार्मिक और सामाजिक विषय ऐसे हैं जिन्हें हम ‘प्रथा’ कहकर महत्त्व ही नहीं देते हैं। स्त्री समुदाय पर पूरा कब्जा बना रहे इसलिये उन्हें कई प्रकार की अतिवादी भावाकुलताओं से जोडे रखा जाता है। भारतीय समाज का अस्तित्व शायद ऐसी ही प्रथाओं के बलबूते पर बना रहता है। जया जादवानी की कहानी ‘जो भी यह कथा पढेगा’ भारतीय सांस्कृतिक जीवन के परम्परागत ढाँचे में हस्तक्षेप करती प्रतीत होती है। यह कहानी उन तमाम स्त्रियों के जीवन के उस पाखण्ड का पर्दाफाश करती है जो धर्म के नाम पर सदियों से चलता आ रहा है। व्रत, अनुष्ठान, पूजापाठ के कर्म विधानों से स्त्रियाँ वैसे ही जकडी हुई हैं फिर अब उनके व्यस्त कार्यक्रमों में सीरियल भी आ जुडे हैं। अब उन्हें दुनिया देखने की फुर्सत ही कहाँ है ‘ गहने, कपडे, सौन्दर्य प्रसाधनों से दबी ढँकी इन स्त्रियों को अपनी मुख्य समस्या का बोध ही नहीं है। औरतों और लडकियों ने ‘तीज’ का व्रत किया, अपने घर की उकताहट, झल्लाहट और रूटीन से हटने के लिये सामूहिक रूप से मंदिर गयीं। पूजा, कथा श्रवण सब कुछ की व्यवस्था है किन्तु वहाँ उन्होंने सुनने के सिवा मनचाहा सब कुछ किया। सुष्मिता सेन की बातें, फिर मन का कुछ न कर पाने की हताशा, चाँद निकलने का इन्तजार और इन सबके बीच यह अनुभूति कि व्रत की इन कहानियों में लहुलुहान औरतों की आत्माएँ हैं। सभी स्त्रियाँ धार्मिक पर्वों पर निरपेक्ष रहती हैं। उनकी आस्थाएँ ‘छूट’ लेना चाहती हैं, पानी न पीना हो तो दूध पीने का मन बनाना, खीर की जगह चाप्सी और चाउमीन खाना और घर में पति यानी शासक नहीं बल्कि पुरुष, ‘मानवीयता’ की तलाश करना, एक तरह से रूढयों के प्रति विद्रोह है। वे स्त्रियाँ जो व्रत करती हैं और वे जो बिना आस्था के व्रत करने को मजबूर हैं, उन्हें अब यह महसूस होने लगा है कि व्रतों की कहानियों में स्त्री की कमजोरियाँ दर्शायी जाती हैं। ‘सुहागन’ बने रहने में ही वे सुरक्षित अनुभव करती हैं। व्रतों की अतिवादी भंगिमा को तोडती यह कहानी जो भी पढेगा, जैसा कि शीर्षक भी है, वह इस सत्य से साक्षात्कार करेगा कि बहुत ही खूबसूरती से स्त्रियों के लिये ऐसी मर्यादाओं का घेरा बना दिया गया है जिसमें रहते-रहते स्त्री की क्षमताएँ चुकती जा रही हैं। हजारों वर्षों से स्त्रियों के आदर्श सीता और सावित्री ही रहे हैं। इन ‘मिथकों’ के सहारे ही शेष जीवन बिताने की चाह रखना कितना खतरनाक है। एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह भी है कि जिनके लिये स्त्री व्रत करती है, भूखी-प्यासी, थकी-क्लांत रहती है, क्या वह उससे प्रेम करता है और क्या यही पति उसे जन्म-जन्मान्तर चाहिये’
इस सन्दर्भ में शती के पूर्वार्द्ध में लिखी हुई यशपाल की कहानी ‘करवा का चौथ’ का उल्लेख करना प्रासंगिक ही होगा जिसमें स्त्री जीवन के अन्तर्विरोध अधिक व्यंग्यात्मक होकर व्यंजित हुए हैं। पति की प्रताडनाओं से तंग और क्षुब्ध पत्नी करवा चौथ के व्रत पर भूखे रहने की तुलना में रोटी खा लेती है और पति के पीटने पर चिल्लाते हुए कहती है – मार ले जितना मारना हो, मैंने कौन-सा तेरे लिये व्रत किया है।’ यह संवाद स्त्री के चेतना सम्पन्न होने का बहुत ही सार्थक उदाहरण है जिसमें सम्बन्धों की कसौटी व्रत करने या न करने में नहीं बल्कि ‘प्रेम’ में अन्तर्निहित है। अत्याचारी पति के प्रति यह विद्रोह नारीवाद का पहला उदाहरण माना जा सकता है।
कहानी में और स्त्री-विषयक चर्चित मुद्दों में एक और समस्या स्त्री के मन को कचोटती रहती है और वह है उसके ‘होने के अहसास की।’ उसकी ‘आइडेंटिटी अस्मिता या पहचान का सवाल’। वह अब सामाजिक काल्पनिकताओं से बाहर आने के लिये छटपटा रही है। अलका सरावगी की कहानी ‘मिसेज डिसूजा के नाम’ में लेखिका की आकांक्षा यही है कि वह घर-परिवार, पति-बच्चे के अलावा अपना भी जीवन जी सके। उसकी यही ‘चाहत’ उसकी सबसे बडी पीडा और असफलता का कारण बन जाती है। बच्ची के स्कूल से उपालम्भ, पति का आदेशात्मक स्वर सभी इस ओर इशारा करते हैं कि दुनिया में जितने अनुशासन हैं, उनकी कैद में अधिकतर बच्चे और महिलाएँ दण्डित हैं। खोजने पर पता चलता है कि अभी तक हमें जीने का सही ढंग आया ही नहीं है। जहाँ जिज्ञासाएँ, प्रश्न, प्रफुल्लता और संवेदनाएँ नहीं होंगी वहाँ मुर्दादिली पसरी दिखाई देगी। वर्तमान समय में कहानियों के कलेवर ने जो परिदृश्य हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है उसमें नौकरी पेशा महिलाओं के जीवन की चिन्ताएँ शीर्ष पर हैं। पितृसत्तात्मक समाज, बाजारवाद, पूँजीवादी संस्कृति और बढती हुई असीमित लालसाओं ने स्त्री के सम्मुख बहुत से संकट खडे कर दिए हैं।
अचला नागर की कहानी ‘सिफारिश’ की गुड्डी दैहिक शोषण से बचने के लिए चार नौकरियाँ छोड चुकी है किन्तु पाँचवीं नौकरी के लिये सिफारिश चाहिये और उसके लिये गुड्डी को समर्पण करना पडता है। माँ की शिक्षा, अपना आत्म सम्मान, सब कुछ गिरवी रख देती है, ‘गाडी सूनी सडक पर चलती है। सामने लगे शीशे पर एक बार यूँ ही मेरी दृष्टि चली जाती है ……. एक जोडी सुर्ख आँखें मेरी आँखों से मिलती हैं और फिर से एक हौल-सा मन में गडबडाने लगता है ….. तभी उनकी बाईं बाँह मेरे कन्धे पर टिक जाती हैं, उँगलियाँ इधर-उधर रेंगने लगती हैं, और कुछ देर बाद माँ के पहनाए गए जिरह-बख्तर में आजाद होने के बाद मैं सामने झूलते हुए सफलता के उस रेशमी परिधान को देखती हूँ।’
‘जाँच अभी जारी है’ कहानी में ममता कालिया ने स्त्री- उत्पीडन की व्यथा को बहुत ही मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है। अपर्णा मेहनती, कुशाग्र और ईमानदार स्त्री है। सम्भवतः यही गुण उसके अवगुण बन जाते हैं। वह बैंक के अपने सहकर्मियों के साथ शामें नहीं गुजारती है। नैतिकता और सच्चाई का दामन पकडे वह जिस रास्ते पर चलना चाहती है उसमें बहुत से व्यवधान आते हैं। उस पर झू�� ा मुकदमा भी चलता है। वह हर जगह अपनी नेक-नियति की सफाई देती है किन्तु निराशा ही हाथ लगती है। इस सारे संघर्ष में से बदली हुई स्त्री की जो चौंकाने वाली छवि सामने आयी उसने स्त्री के आदर्शवादी नकाब को उतारकर फैंक दिया। कमल कुमार की कहानी ‘सीढयाँ’ में नीरू सफलता के लिये पुरुष मित्रों को सीढी की तरह काम में लेती है। उसे लगता है अजय में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रही है। अजय से मित्रता रखना मतलब कि घर के बोझ से दबी घरेलू औरत। विजय की मित्रता, उसका कलात्मक व्यक्तित्व भी नीरू को रास नहीं आता, क्योंकि वह आदर्शवादी है। नीरू की दिलचस्पी अब अनिल में है। किन्तु देह और दुनिया के सारे खेल देखकर उसे इस सच्चाई का भान होता है कि रिश्तों को साधन नहीं साध्य मानना चाहिये। वह पुनः लौटती है पुराने सम्बन्धों के पास। विजय को फोन करती है।नौकरीपेशा स्त्री की छटपटाहट, अपने ही निर्णयों के प्रति असमंजस की स्थिति, संवेदनाओं के उतार-चढाव की अत्यन्त ही मर्मस्पर्शी कहानी है। चित्रा मुद्गल की ‘दरमियान’। एक नौकरी में उलझी स्त्री के पास सबसे अधिक समस्या है समय की। उसकी चिंता कभी ‘स्व’ के प्रति, कभी बच्ची के प्रति, कभी पति के प्रति सन्नद्ध होती है। ऐसी ऊहापोह और उलझन भरी मनःस्थितियों का पुनः पुनः दोहराया जाना यह सिद्ध करता है कि महानगरीय जीवन के बीच नौकरी और परिवार के बीच सामंजस्य स्थापित करना कितना मुश्किल है। समकालीन समय में जीवन मूल्यों में जो परिवर्तन आया उसने स्त्री जीवन को भी प्रभावित किया है। मधु कांकरिया उन लेखिकाओं में है जिन्होंने स्त्री के मन को बहुत ही गहराई से टटोला है। मधु कांकरिया की कहानियों की स्त्रियाँ कहीं बेबाक, कहीं कोमल और कहीं अपनी अस्मिता की तलाश करती हुई दिखाई देती है। यह कम महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है कि मधु ने जब भी अपनी स्त्री पात्रों के प्रति न्याय किया वे अपने आप से, एक विशेष प्रकार के काल्पनिक रिश्तों से मुक्त होती हुई प्रतीत होती हैं। मधु का ‘बीतते हुए’ में इन्द्रजीत और मणि दीपा के प्रेम-प्रसंग को, प्रेम के उठते-गिरते ग्राफ को और फिर इस रिश्ते से उठती भाप को बादल बनते हुए दिखाया है। पन्द्रह वर्षों के सुदीर्घ अन्तराल के बाद, जीवन में बहुत कुछ खोकर, मणिदीपा इन्द्रजीत अपने पुराने प्रेमी को आमंत्रित करती है। इन्तजार लम्बा होता जाता है, और पुरानी स्मृतियाँ पुनर्जीवन पाती हैं। इस उद्वेलन को सहते-सहते मणिदीपा ‘प्रेम’ की परिभाषा कुछ यूँ करती है – ‘मुझे तो आत्मबोध हो चुका इन्द्र का प्रेम न उद्दाम वेग है, न आत्मविस्मृति या तल्लीनता के चरम क्षण। थककर चूर निःस्पन्द पडी काया के सिरहाने तकिया बढाते हाथ प्रेम है। श्रम और परेशानी से माथे पर उभरी स्वेद बूँदों पर शीतल उँगलियों की छुअन है प्रेम। ठिठुरती ठंड में गर्म खाने के लिये ठिठुरती प्रतीक्षारत निगाहें हैं प्रेम।
हिन्दी कहानियों में महत्त्वपूर्ण बदलाव उषा प्रियम्वदा की उन कहानियों से आया जिनमें एक तरफ अर्थ के प्रभाव है तो दूसरी ओर स्त्री के अकेलेपन का विस्तार वर्णित है। ‘जन्दगी और गुलाब के फूल’ उषा जी की ‘नई कहानी’ के दौर की किन्तु इस समय की पुरानी कही जाने वाली कहानी है किन्तु अर्थ के केन्द्र में यदि स्त्री है तो पुरुष का अहं कैसे आहत होता है’ यह मुहावरा आज भी अपना असर बनाए हुए हैं। पिछले दिनों उषा प्रियम्वदा का ‘मेरी कहानियाँ’ नाम से संग्रह पढने को मिला। उनकी ‘कितना बडा झूठ ’ और ‘मोहबंध’ कहानियों में आधुनिक भारतीय समाज में वैवाहिक जीवन की असंगतता और दिखावे की स्थितियों को प्रस्तुत किया गया है। प्रेमविहीन जीवन स्त्रियों को कितना थका देता है इसका यथार्थ वर्णन किया गया है। विवाह सम्बन्ध कम समझौता अधिक है। ‘कितना बडा झूठ ’ कहानी की किरण नौकरीपेशा आधुनिक स्त्री है। उसके मन में पति और बच्चों से मिलने की इच्छा नहीं है। वह चाहती है मैक्स का स्पर्श। दैहिक सुख। विवाहेतर सम्बन्धों का यह सहज स्वीकार स्त्री को नये सोच की तरफ धकेलता है। किरण को मैक्स का शादी कर लेना इसलिये स्वीकार्य नहीं है। किन्तु विवश और लाचार वह झूठ से सही पति और बच्चों को अपनाने के लिये स्वयं को तैयार कर लेती है।
[ बाद में जोड़ा गया: रचना जी ने बताया कि यह टिप्पणी यहाँ से चुरायी गयी है. इस लेख पर अधिकार मूल लेखक/लेखिका के हैं. पूरी समीक्षा आप यहाँ क्लिक कर पढ़ें ]
क्या यह बहनजी सामने आंयेगी.
रंजना जी ने कहा.
बहन जी,आपकी साहित्यिक चेतना वन्दनीय है,अद्भुत है.आपसा कहानियो का मिमान्सक जगत मे मिलना दुर्लभ है.
साधुवाद.
इस मुद्दे पर अन्य पोस्ट
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Kakesh
I searched on google नौकरीपेशा स्त्री की छटपटाहट and came up to the link http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=621
पता चले तो हमे भी बता दीजियेगा.
हाँ एक और बात पता नही चल पा रही है कि पोस्ट मे टिपण्णी है या टिपण्णी मे पोस्ट?
Kakesh
I searched on google नौकरीपेशा स्त्री की छटपटाहट and came up to the link http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=621
which has been posted as it on this comment by behanji
इस सारी बहस मे यही सबसे सार गर्भित कमेंट है. शुक्रिया इसे छापने के लिये. बह्स क कोइ अंत नही है, और ये समस्या बहस से सुलझने वाली भी नही है. सिर्फ और सिर्फ व्यहवार और अनुभूतियोन से ही सुलझेंगी. खासकर किसी भी समाज की असभ्यता का सबसे ज्यादा शिकार इसके सबसे कमज़ोर वर्ग ही होते है, जैसे औरते, बच्चे, बूढे,. जिस तरह का विमर्श यहा देखने को मिला, मुझे बहुत शर्म है अपने भारत पर, इसके बशिन्दो पर.
और अगर वकई सभ्य समाज बनाना है तो सभय्ता इसी मे है कि सबको समान अवसर दिया जाय, एक इंसान के बतौर. स्त्री विमर्श को छोड भी दिया जाय, तो बूढो कि स्थिती, अपाहिज लोगो के लिये सार्वजनिक जीवन मे इससे भी कम जगह है. किस शहर की बसे, यातयात के साधन, ओफिस, और तमाम दूसरी सर्व्जनिक जगह है, जहा, स्वभिमान के साथ ये लोग जा सकते है? शिर्कत कर सकते है?
य़े टकराव का ज़माना है, समस्या का सीधा समाधान और नैतिक और राज़्नैतिक द्रिस्टी के अभाव मे, सवर्ण-दलित, अगडे-पिचडे, औरत-मर्द, जवान-बूढे, क्षेत्रियता, धर्म, सभी की वाट लगने वाली है.
ये मन की ग़ांठे है, इतनी आसानी से नही खुलेंगी……….
एक मरतबा, एक जमीन्दार रशूख वाले साहब, होस्तेल मे पढने गये, और टोय्लेट का फ्लुश चलाना उन्हे अपनी शान के खिलाफ लगा. इस काम को उन्होने, भंगी का काम माना. पर होस्तेल मे कोन था जो उनका भंगी बनता? अंत मे उंकी पेशी हुयी, और फिर उन्होने अपनी गन्द साफ करनी सीखी.
इसीलिये, जिनके दिमाग मे गन्द भरी है, फ्लुश उन्ही को चलाना पढेगा. नही तो उस्की गन्द से सबसे पहले उनके आसपास वाले, परिवार वाले बीमार होंगे, उनके अपनो को सबसे ज्यादा तक्लीफ होगी.
बाकी छ अरब लोगो के साथ किसी भी औरत का सिर्फ, मा, बहन, प्रेमिका या पत्नी का समबन्ध नही हो सक्ता और इस परिधी मे दुनिया के अधिकांश लोगो को क्या उसके अपमान का लाय्सेंस मिला हुया है?
मज़ा आया इस पूरे सिलसिले पर नज़र रखे था पर टिप्पणी नहीं कर पाया। उधर बिहारवाद मे उलझा हुआ था।
ओफ़ ओ इत्ती लंबी टिप्पणी, हमारे बस की न है पढ़नी तो भैया जो कुछ लिखा है अच्छा ही लिखा होगा…।:)