बिस्तरा है न चारपाई है,
जिन्दगी खूब हमने पायी है।
कल अंधेरे में जिसने सर काटा,
नाम मत लो हमारा भाई है।
ठोकरें दर-ब-दर की थी हम थे,
कम नहीं हमने मुँह की खाई है।
कब तलक तीर वे नहीं छूते,
अब इसी बात पर लड़ाई है।
आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यही सचाई है।
कच्चे ही हो अभी त्रिलोचन तुम
धुन कहाँ वह सँभल के आई है।
— त्रिलोचन ( “गुलाब और बुलबुल” से )
कुछ सॉनेट ‘दिगंत’ से
सिपाही और तमाशबीन
घायल हो कर गिरा सिपाही और कराहा।
एक तमाशबीन दौड़ा आया। फिर बोला,
‘‘योद्धा होकर तुम कराहते हो, यह चोला
एक सिपाही का है जिस को सभी सराहा
करते हैं, जिस की अभिलाषा करते हैं, जो
दुर्लभ है, तुम आज निराशावादी-जैसा
निन्द्य आचरण करते हो।’’ कहना सुन ऐसा
उधर सिपाही ने देखा जिस ओर खड़ा हो
उपदेशक बोला था। उन ओठों को चाटा
सूख गए थे जो, स्वर निकला, ‘‘प्यास !’’ खड़ा ही
सुनने वाला रहा। सिपाही पड़ा पड़ा ही
करवट हुआ, रक्त अपना पी कुछ दुख काटा—
‘‘जाओ चले, मूर्ख दुनिया में बहुत पड़े हैं।
उन्हें सिखाओ हम तो अपनी जगह अड़े हैं।’’
सॉनेट का पथ
इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;
सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला
यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला
गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा
अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे
ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो
नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;
गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे
ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।
स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी
वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी
स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।
सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,
जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।
प्यार
जब भौंरे ने आकर पहले पहले गाया
कली मौन थी। नहीं जानती थी वह भाषा
इस दुनिया की, कैसी होती है अभिलाषा
इस से भी अनजान पड़ी थी। तो भी आया
जीवन का यह अतिथि, ज्ञान का सहज सलोना
शिशु, जिस को दुनिया में प्यार कहा जाता है,
स्वाभिमान-मानवता का पाया जाता है
जिस से नाता। उस में कुछ ऐसा है टोना
जिस से यह सारी दुनिया फिर राई रत्ती
और दिखाई देने लगती है। क्या जाने
कौन राग छाती से लगता है अकुलाने,
इंद्रधनुष सी लहराती है पत्ती पत्ती।
बिना बुलाए जो आता है प्यार वही है।
प्राणों की धारा उस में चुपचाप बही है।
त्रिलोचन श्रंखला के कुछ और लेख…
काकेशजी महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं आप। शुभकामनाएं।
वाह आज तो आपने हमे खुश कर दिया. बिस्तर न चारपाई, नीद आनी थी तो बिन बुलाये आई.
“आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यही सचाई है।”
“बिना बुलाए जो आता है प्यार वही है।
प्राणों की धारा उस में चुपचाप बही है।”
बहुत- बहुत धन्यवाद आपको.
बहुत बहुत धन्यवाद
अतुल
लगता है त्रिलोचन जी ने बुढ़ापे में यह पंक्तियां लिखी होंगी कि…
आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यही सचाई है।
क्योंकि यह तो बडी understood सी बात है। असली चीज़ तो जीवन के संघर्षों में बाहर और भीतर के सच और उनके अंतर्सबंध को समझना होता है।
वाह वाह, बहुत खूब, क्या कलैक्शन है।