आजकल ब्लॉगजगत में कम्यूनिज्म पर बहस जोरों पर है. कोई इसे बाल विवाह से जोड़ रहा है तो कोई तलाक से.इसी बहाने आज कुत्ताज्ञान ब्रह्मज्ञान भी मिल गया. 🙂
मैं जब कम्यूनिज्म पर कुछ पढ़ता हूँ या फिर किसी के मुँह से कुछ सुनता हूँ तो कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं होता. कुछ भी कहने के लिये मेरी अज्ञानता आड़े आ जाती है.मैने लोगों को इस वाद की बड़ाई करते भी सुना है और इस वाद के घोर विरोधी भी देखे हैं. इसलिये अभी तक इस मामले में अज्ञान ही हूँ कि यह असल में है क्या.
बचपन में इतिहास की किताबों में मार्क्स और लेनिन के बारे में पढ़ा था.उसे पढ़ने के बाद उसकी समझ उतनी ही बनी जितनी इतिहास की किताबें पढ़ने के बाद बच्चों की आम तौर पर बनती है ..यानि नासमझ के नासमझ ही रहे.कॉलेज में जब था तब कुछ नेता टाइप के लोग कभी कभी कुछ पर्चे बांटते थे जिनमें एक दाढ़ी वाले इंसान की फोटो के साथ कुछ कविताऎं या लेख रहते थे. लेकिन तब कोर्स की किताबें पढ़ने का इतना जुनून था कि ध्यान ही नहीं दिया कि उन पर्चियों में क्या लिखा रहता है.
बाद में जब नौकरी के सिलसिले में बंगाल में रहा तो फिर कम्यूनिज्म से सामना हुआ.आये दिन बंगाल बंद होते रहते थे इसलिये मुझे यह कुछ दिनों बहुत भाया.मेरे कुछ बंगाली मित्र मुझे कम्यूनिज्म को समझने के लिये उकसाते रहे और मैं हमेशा किसी ना किसी बहाने कन्नी काटता रहा.कुछ लोगों ने मुझे ‘दास कैपिटल’ पढ़ने की सलाह दी. उन दिनों पुस्तक मेलों में रशियन किताबों का बहुत बोलबोला था.इन स्टालों पर भीड़ भी बहुत लगती थी. वो इसलिये कि यहाँ मोटी मोटी हार्डबाउन्ड किताबे बांकी किताबों के मुकाबले काफी सस्ती मिल जाती थी. जहाँ तक याद पढ़ता है दो रशियन प्रकाशक मीर पब्लिशर और प्रोग्रेसिव पब्लिशर की बहुत सी किताबें बहुत सस्ते में मिल जातीं थी. उसी दौरान वही से हार्ड बाउंड अन्ना कैरेनीना, वार एंड पीस,चेखव की कहानिया , चेखव के नाटक इत्यादि खरीदे. ‘दास कैपिटल’ पहली बार में नहीं खरीदी क्योकि लगा कि पढ़ नहीं पाउंगा. लेकिन एक मित्र थे जो इसी बात को लेकर मित्र-मंडली में मुझे मजाक मजाक में मूर्ख साबित करने की कोशिश करने लगे. हाँलाकि और भी कई लोग थे जिन्होने ‘दास-कैपीटल’ नहीं पढ़ी थी लेकिन टार्गेट केवल मैं ही होता था. उनका टार्गेट बनने से बचने के लिये अगले पुस्तक मेले में मैने दास-कैपीटल खरीदने का निर्णय किया. यह किताब तीन मोटे मोटे वोल्यूम में थी मुझे लगा कि काफी मँहगी होगी लेकिन तीनो वॉल्यूम मात्र 120 रुपये के मिल गये. मैने बड़े शान से तीनो वॉल्यूम अपनी मेज पर सजाये. वो मित्र भी आये तो बड़े खुश हुए. मुझसे एक एक कर तीनों वोल्यूम माँग कर भी ले गये. अब मित्र-मंडली में वो मेरी तारीफ भी करने लगे थे.वह मुझे प्रगतिशील समझने लगे थे. यह घटना दस साल पुरानी है. इन दस सालों में मैने अभी तक दास-कैपीटल का एक पन्ना भी नहीं पढ़ा लेकिन ये मेरी अलमारी में अभी भी अलग से शोभायमान है.
मैं बंगाल में जब था तो एक मित्र ने एक बार कम्यूनिज्म पर एक टिप्पणी की थी. उनका कहना था ” यदि कोई पच्चीस साल की उम्र तक कम्यूनिस्ट नहीं बना तो उसके पास दिल नहीं है और यदि कोई पच्चीस साल की उम्र के बाद भी कम्यूनिस्ट बना रहा तो उसके पास दिमाग नहीं है”
आलोक पुराणिक जी ने अपनी टिप्पणी में बताया है कि यह टिप्पणी शायद बर्नार्ड शॉ की है. धन्यवाद आलोक जी. बर्नार्ड शॉ की टिप्पणी कुछ इस तरह है. “Any man who is not a communist at the age of twenty is a fool. Any man who is still a communist at the age of thirty is an even bigger fool.”
(चित्र विकीपिडिया से साभार)
मैं बंगाल में जब था तो एक मित्र ने एक बार कम्यूनिज्म पर एक टिप्पणी की थी. उनका कहना था ” यदि कोई पच्चीस साल की उम्र तक कम्यूनिस्ट नहीं बना तो उसके पास दिल नहीं है और यदि कोई पच्चीस साल की उम्र के बाद भी कम्यूनिस्ट बना रहा तो उसके पास दिमाग नहीं है” शायद यह टिप्पणी बर्नार्ड शा की है, जो बहुत जगह कोट की जाती है।
बर्नार्ड शा की बात में गहन सचाई है।
आपके मित्र के मानदंड के हिसाब से तो अपन के पास दिल और दिमाग दोनों हैं। 🙂
” यदि कोई पच्चीस साल की उम्र तक कम्यूनिस्ट नहीं बना तो उसके पास दिल नहीं है और यदि कोई पच्चीस साल की उम्र के बाद भी कम्यूनिस्ट बना रहा तो उसके पास दिमाग नहीं है”
बहुत जबर्दस्त कोट है
आपके पास अब क्या है? दिल या दिमाग?
तय करना मुश्किल है की हमारे पास क्या था, क्या है. विचारों पर कभी वादो को हावी नहीं होने दिया.
लेख में गम्भीरता और व्यंग्य दोनो की अच्छी पूट है. (वैसे व्यंग्य गम्भीर ही होता है)
भाई काकेश , यदि अभी तक नहीं पढ़ी है तो पढ़ डालो वह किताब क्यों फालतू में अलमारी में सजा के रखे हो उसे. साम्यवाद एक दर्शन है जिसे बिना समझे ही लोग पें पें करने लगते हैं.. आजकल सब को साम्यवाद और मोदी को गरियाने,लतियाने और अपने नम्बर बनाने का शौक चढा है.मार्क्स की सोच एक वैज्ञानिक सोच है.ज्ञान जी के शब्दों में मात्र लफ्फाजी नहीं.जो इसे समझता है वो इसे अपनाता है जो नहीं समझता वो सिर्फ अनर्गल बकता है.कभी बाल विवाह का बहाना बनाता है कभी कुत्ता ज्ञान पेलता है..दो रोटी पेट में जाने के बाद सारे दुख दर्द भूल जाते है.अब तो नटनी बांस पर भी चढेगी सबका बांस करने.उस नटनी को अपनी पसंद में लगाया है ना तो देखो उसका नाच.जो लोग इस वाद से जुड़े वो पागल नहीं थे सब के सब एक सिरे से बुद्धिजीवी थे.क्या आपने उन कवियों को नहीं पढ़ा. तो पढ़िये.नटनी के साथ नाच मत करिये.
पूरी दुनिया से साम्यवाद की विदाई हो रही है। होना स्वाभाविक ही है। यह दर्शन वास्तव में जनविरोधी है। रूस में 70 सालों के साम्यवादी शासन की परिणति यह हुई कि लोग ब्रेड के लिए तरस गए। और अंतत लेनिन की मूर्ति को मटियामेट कर दिया। पश्चिम बंगाल में वही स्थिति उत्पन्न हो गई है। राशन के लिए दंगा हो रहा है। आखिरी लौ की तरह साम्यवाद भारत में फरफरा रहा है पर अब जल्द ही यह बुझने वाला है।
भाइयों, मैंने तो इस अनर्गल बहस से हटने के लिए आज उपनिषद की एक कहानी लगा दी, जिसका कोई टेढ़ा-सीधा ताल्लुक बाल-विवाह पर तथाकथित कॉमरेडों की निकल रही खिसियानी खीझ से नहीं था। चलिए, कालिदास की उंगली का मतलब पंडितगण निकाल ही लेते हैं। लेकिन इसमें कालिदास का कोई दोष नहीं था। बाकी भूल-चूक लेनी-देनी।
अच्छी पोस्ट और अच्छी टिप्पणियाँ।
साम्यवाद के ब्लू-प्रिण्ट से सार्थक तरीके से कैसे चलेगा और तरक्की करेगा देश – यह कोई बढ़िया से समझा दे, तो बावजूद बर्नार्ड शॉ मैं साम्यवादी बन जाऊं। पर चीन का बाजारोन्मुख होना, बर्लिन की दीवार का पतन, पूर्वी जर्मनी के लोगों का उसके पहले दमन, रूस का विघटन, पश्चिम बंगाल से उद्योगों का पलायन – यह सब समझ में आ जाना चाहिये।
अच्छी पोस्ट है. बर्नाड शॉ की यह टिप्पणी-यह भी आज जाना. सुना कई बार था. आलोक जी को साधुवाद जानकारी के लिये.
काकेश भाई, ये कैसी तकनीकी करामात है कि बेनामी टिप्पणी का लिंक क्लिक करने पर आपकी ही साइट पर जा रहा है?
पढ़ लिया जी.. बर्नाड शा की बात काफ़ी हद तक सही है.. आम तौर पर यही होता है.. लेकिन विडम्बना है.. मार्क्स ने एक बेहद रुक्ष बौद्धिक दर्शन प्रस्तुत किया था.. जो भयानक किस्म के आदर्शवादी कपड़े पहन के घूम रहा है जगह-जगह..
कोई मध्यमवर्गी नौजवान स्वयंसेवक बनता है या कम्यूनिस्ट.. यह काफ़ी कुछ इस बात पर निर्भर कर सकता है कि किस से उसका गहरा सम्पर्क हो गया..दोनों आदर्शवाद की चाशनी से लपटाते हैं.. ऐसी ही किसी बात के कारण अनिल रघुराज पर हमला किया जा रहा है.. अब शायद मुझे गाली देंगे..
दास कैपिटल मैंने भी नहीं पढ़ी है। आजकल जबसे सोवियत रूस का विखंडन हुआ है तबसे मार्क्सवाद के अंत की बात की जा रही है। लेकिन जगह-जगह उसी से सही गलत प्रेरणा लेकर लोग आंदोलित भी हैं, गोलबंद भी।
मैने तो सीधे शब्दों में अपनी बात रखी थी.इसमें कल्पना बिल्कुल नहीं है सब सच है.हाँ थोड़ा बहुत व्यंग्य आदतन आ गया था 🙂 लेकिन मेरे गुमनाम दोस्त और बेनामी पाठक बिना अपना नाम जाहिर किये भी आदतन अपनी सभ्यता का परिचय दे गये.
खैर ये अच्छा ही है किसी भी बहाने से सही इन लोगों ने अपनी बात तो रखी वरना इनकी दिल की बात दिल में ही रह जाती.मेरे ऎसे गुमनाम पाठकों को मेरा विशेष नमन कि उन्होने बिना अपनी असभ्यता क परिचय दिये, सभ्य ढंग से अपनी बात रखी. हाँ अनिल जी को इससे दुख पहुंचा हो तो उसके लिये मुझे खेद है.
@अनिल जी : बेनामी महोदय ने अपनी मेल ID बेनामी @ बेनामी डॉट कॉम दी है और अपनी साइट के पते में मेरा ही पता डाल दिया है इसलिये क्लिक करने पर वह मेरी ही साइट पर जा रहा है.इसमें कोई भी तकनीकी करामात नहीं है चाहे तो आप भी किसी के नाम से भी टिपिया सकते हैं. हाँ आई पी ऎड्रेस आप का ही आयेगा. जिससे शायद मैं पहचान लूँ कि यह आप थे जैसे मैं कुछ कुछ समझ रहा हूँ कि ये बेनामी दोस्त कौन हैं.लेकिन जाने दीजिये उससे क्या होगा.
आप सभी को टिपियाने के लिये धन्यवाद.
भई साम्यवाद ईश्वर को खारिज करता है, हमारे लिए इतना ही कारण काफी है इसे खारिज करने के लिए।
दास कैपीटल कई मायने में एक अच्छी किताब है, शेल्फ में रखी हो तो कई किस्म कर कुंठाओं का शमन होता है- हम बौद्धिक नहीं हैं, जनवादी नहीं है आदि का इलाज इस किताब के तीनों खंड रखे होने से हो जाता है। BTW आपने कुछ महंगी ली है, हमें तो 20 रुपए फी खंड के हिसाब से मिली थी पर आपने हो सकता है अंग्रेजी में ली हो। वेसे हिंदी में लेने का एक फायदा यह है कि कोई आरोप नहीं लगा सकता कि रखे हुए हो पढ़ी भी है, क्योंकि हमें तो अभी तक कोई नहीं मिला जिसने हिंदी में पढ़कर उसे समझ लिया हो- मुश्किल तो पृथ्वीराज रासो भी है पर अनुवाद में इसकी अवहट्ट भक्त कम्यूनिस्ट भी नहीं समझ पाते।
हमने एक ओर कारण से ली थी, गोलवलकर की विचार नवनीत और पूंजी दोनों साथ साथ रखी हो तो खूब सजती हैं, शेल्फ में। :))
घोर आश्चर्यजनक ! महोदय कार्ल मार्क्स के ” दास कैपिटल ” से संबंधित अभिव्यक्तियाँ देने से पहले जिज्ञासु बनीये तदुपरांत आप देखिये वास्तव में कितना मजा आएगा क्योंकि मार्क्सवाद एक गतिशील दर्शन है , मज़दूरों के सभी सामाजिक कारवाईया दिशा -निर्देशक है / अब तो आप समझ गए होंगे ……………..
बड़ी मुसीबत है, कि मार्क्सवाद ईश्वर को खारिज करता है और लोग उसे खारिज करते हैं, किसी अज्ञात सत्ता के लिए ज्ञात के मददगार को नकार रहे हैं, और जो अधिक बकवास करते हैं, वे किसी रूस और स्तालिन कि हत्यायों को सामने ले कर बात करते हैं, मार्क्सवाद क्रांति के लिए विद्रोह आवश्यक मानता है, मगर हिंदुत्व कब मानता था विद्रोह को, मेरे ख्याल से नरेंद्र मोदी को किस धरनी में रखा जाना चाहिए ये आप ख़ुद सोचेंगे। आलोचना मार्क्सवादियों कि अगर हो तो मैं मानने में गुरेज़ नहीं रखूँगा कि बहुत अधिक अत्याचार हुए, हर जगह ग़लत था। परन्तु मार्क्सवाद की आलोचना से मैं सहमत नहीं हूँ, जहाँ लोग बिना पढ़े ही बकवास कर रहे हैं, कि मार्क्सवाद ये है वो है, पहले वे पाठक होना आवश्यक हैं जो इस बात को समझें और ये अनर्गल उत्तर न देवें कि ” मार्क्सवाद ईश्वर को खारिज करता है” उनके पास कितने शब्द हैं, और वे क्या जानते हैं, उससे सम्बंधित प्रश्न यहाँ उठा ही नहीं है, अतः उन्हों ने बकवास कह दी। मार्क्सवाद एक प्रगतिशील दर्शन है, जो पूंजीपतियों का विद्रोह करता है। इतना ही काफी है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य यहाँ उपस्थित हो तो मार्क्सवाद उसका विद्रोही है।
Nishant kaushik