ज़लील करने के अलग अलग शेड

सय्यद सय्यद लोग कहे हैं, सय्यद क्या तुम-सा होगा : अब इस रेखाचित्र में जलील होने के अलग-अलग शेड भरना हम आपकी विचार क्षमता पर छोड़ देते हैं। इन हालात में जैसा वक़्त गुजर सकता था, गुजर रहा था। दिसम्बर में स्कूल का सालाना जलसा होने वाला था जिसकी तैय्यारियां इतनी जोर-शोर से हो रही थीं कि मौली मज्जन को इतनी फ़ुरसत भी न थी कि मास्टरों की तनख़्वाहों की अदायगी तो दूर, इस विषय पर झूठ भी बोल सकें। दिसम्बर का महीना सालाना क़ौमी जलसों, मुर्ग़ाबी के शिकार, बड़े दिन पर साहब लोगों को डालियां भेजने, पतंग उड़ाने, कुश्ते खाने और उनके नतीजों से मायूस होने का जमाना होता था। 30 नवम्बर को मौली मज्जन ने बिशारत को बुलवाया तो वो यह समझे कि शायद निजी रूप से एकान्त में तनख़्वाह देंगे ताकि और टीचरों को कानों-कान ख़बर न हो। मगर वो छूटते ही बोले “आप अपने शेरों में पराई बहू-बेटियों के बारे में अपने मंसूबों का बयान करने के बजाय क़ौमी जज्बा क्यों नहीं उभारते। अपने मौलाना हाली पानीपती ने क्या कहा है ऐसी शायरी के बारे में? (चुटकी बजाते हुए) क्या है वो शेर? अमां! वही सन्डास वाली बात” बिशारत ने मरी-मरी आवाज में शेर पढ़ा

वो शेर और क़साइद का नापाक दफ़्तर

उफ़ूनत  में   संडास  है  जिससे    बेहतर

उनकी बीबी और मौलाना हाली की साझी ग़लतियां : शेर सुनकर फ़मार्या, “आपके हाथों में अल्लाह ने शेर गढ़ने का हुनर दिया है। इसे काम में लाइये, सालाना जलसे में यतीमों पर एक जोरदार नज्म लिखिये। मुस्लिम क़ौम में चेतना के अभाव, साइंस पर मुसलमानों के अहसानात, सर सय्यद की क़ुरबानियां, अंग्रेजी-साम्राज्य में अम्न-चैन का दौर-दौरा, चंदे की अहमीयत, तारिक़ द्वारा स्पेन की विजय और तहसीलदार साहब की क्षमता और अनुभव का जिक्र होना चाहिये। पहले मुझे सुना दीजियेगा। वक़्त बहुत कम है।”

बिशारत ने कहा “मुआफ़ कीजियेगा, मैं ग़जल का शायर हूं। ग़जल में यह विषय नहीं बांधे जा सकते।“

क्रोधित होकर बोले,”मुआफ़ कीजियेगा, क्या ग़जल में सिर्फ़ परायी बहू-बेटियां बांधी जा सकती है? तो फिर सुनिये, पिछले साल जो उर्दू टीचर था वो डिसमिस इसी बात पर हुआ था। वो भी आपकी तरह शायरी करता था। मैंने कहा, इनआम बांटने के जलसे में बड़े-बड़े लोग आयेंगे। हर दानदाता और बड़े आदमी के आने पर पांच मिनट तक यतीमख़ाने का बैंड बजेगा। यतीमों की बुरी हालत और यतीमख़ाने के फ़ायदे और ख़िदमत पर एक फ़ड़कती हुई चीज हो जाये। तुम्हारी आवाज अच्छी है गा कर पढ़ना। ऐन जलसे वाले दिन भिनभिनाता हुआ आया। कहने लगा, बहुत सर मारा, पर बात नहीं बनी। इन दिनों तबियत हाजिर नहीं है। मैंने कहा, अमां हद हो गई। अब क्या हर चपड़क़नात मुलाजिम की तबियत के लिये एक अलग रजिस्टर हाजिरी रखना पड़ेगा। कहने लगा, बहुत शर्मिन्दा हूं। एक दूसरे शायर की नज्म, मौके के हिसाब से तरन्नुम से पढ़ दूंगा। मैंने कहा, चलो कोई बात नहीं, वो भी चलेगी। बाप रे बाप! उसने तो हद ही कर दी। भरे जलसे में मौलाना हाली पानीपती की मुनाजाते-बेवा (विधवा की ईश्वर से प्रार्थना) के बन्द पढ़ डाले। डायस पर मेरे पास ही खड़ा था। मैंने आंख से, कुहनी के टहूके से, खंखार के, बहुतेरे इशारे किये कि अल्लाह के बंदे! अब तो बस कर। हद ये कि मैंने दायें कूल्हे पर चुटकी काटी को बायां भी मेरी तरफ़ करके खड़ा हो गया। स्कूल की बड़ी भद पिटी। सब मुंह पर रूमाल रखे हंसते रहे मगर वो आसमान की तरफ़ मुंह किये रांड-बेवाओं की जान को रोता रहा। एक मीरासी, जिसके जरिये मैंने कार्ड बंटवाये थे, ने मुझे बताया इस बेहया ने दो तीन सुर मालकोंस के भी लगा दिये। लोगों ने दिल-ही-दिल में कहा होगा कि मैं शायद मौलाना हाली की आड़ में विधवा आश्रम खोलने की जमीन तैयार कर रहा हूं। बाद को मैंने आड़े हाथों लिया तो कहने लगा, सब की किताबें खंगाल डालीं। यतीम पर कोई नज्म नहीं मिली। सितम ये है कि मीर तक़ी मीर, जो ख़ुद बचपने में यतीम हो गये थे, ने मोहनी नाम की बिल्ली और कुतिया पर तो प्रशंसा में काव्य लिखे पर मासूम यतीमों पर फ़ूटे मुंह से एक लाइन न कह के दी। इस तरह मिर्जा ग़ालिब ने सेहरे के लिये, प्रशंसा में क़सीदे लिखे। बेसनी रोटी, डोमनी की तारीफ़ में शेर कहे, दो कौड़ी की छाली को सरे-पिस्ताने-परीजाद (परी के स्तन का अगला भाग) से भिड़ा दिया मगर यतीमों के बारे में एक शेर भी नहीं कहा। अब हर किताब से मायूस हो गया तो मुझे एक दम ख़याल आया कि यतीमों और बेवाओं का चोली-दामन का साथ है। विषय एक और दुख साझा, सो ग़ुलाम ने मुनाजाते-बेवा पढ़ दी। महान रचना है। तीन साल से आठवीं के इम्तहान में इस पर बराबर सवाल आ रहे हैं। चुनांचे मैंने भी ग़ुलाम को उसकी महान रचना और चोली-दामन समेत खड़े-खड़े डिसमिस कर दिया। कुछ दिन बाद उस हरामख़ोर ने मेरे ख़िलाफ़ इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल से शिकायत की। उसमें ये भी लिक्खा है कि मैंने अपने नहाने के लिये पांच मर्तबा बाल्टी में पानी मंगवाया। सरासर झूठ बोला। मैंने पन्द्रह-बीस बार मंगवाया था। घड़े में भर के छलकाता लाया था।

मौलवी मुजफ़्फ़र की बुराइयां बिल्कुल स्पष्ट और अच्छाइयां आंखों से छुपी हुई थीं। वो बिशारत के अंदाजे और अंदेशे से जियादा जहीन और काइयां निकले। ऐसे ठूंठ जाहिल नहीं थे, जैसा दुश्मनों ने मशहूर कर रखा था। रहन-सहन में एक सादगी और सादगी में इक टेढ़। कानों और जबान के कच्चे, मगर धुन के पक्के थे। उन्हीं का हौसला था कि बारह साल से बग़ैर साधन के लश्तम-पश्तम स्कूल चला रहे थे। उसे चलाने के लिये उनकी निगाह में हर क़िस्म की धांधली उचित थी। स्कूल की हालत ख़राब बताई जाती थी। आये दिन मास्टरों से दर्द भरी अपील की जाती थी कि आप दिल खोल कर चंदा और दान दें। पांच-छः महीने की नौकरी के दौरान उन्हें कुल साठ रुपये मिले थे, जो स्कूल एकाउंट की किताबों में क़र्ज के तौर पर दिखाये गये थे। अब उन्हें तनख़्वाह का तक़ाजा करते हुए भी डर लगता था कि क़र्ज बढ़ता जा रहा था। इधर न मिली तन्ख़्वाह की राशि बढ़ती जाती, उधर मौली मज्जन का लहजा रेशम और बातें लच्छेदार होती जातीं। बिशारत ने एक दिन दबे शब्दों में तक़ाजा किया तो कहने लगे, “बेटे! मैं तुम्हारे बाप की तरह हूं मेरी समझ में नहीं आता तुम इस अकेली देह में इतने रुपयों का क्या करोगे? छड़े-छटांक आदमी हो। अकेले घर में बेतहाशा नक़दी रखना जोखिम का काम है। रात को तुम्हारी तरफ़ से मुझे डर ही लगा रहता है। सुल्ताना डाकू ने तबाही मचा रखी है।“ बहरहाल इस तक़ाजे का इतना असर जुरूर हुआ कि दूसरे दिन से उन्होंने उनके घर एक मटकी छाछ की भेजनी शुरू कर दी।

तहसीलदार ने कभी रुपये-पैसे से तो कोई बर्ताव नहीं किया, अलबत्ता एक दो गड्डी पालक या चने का साग, कभी हिरन की टांग, कभी एक घड़ा गन्ने का रस या दो-चार भेलियां गुड़ की साथ कर देता। ईद पर एक हांडी सन्डीले के लड्डुओं की और बक़रईद पर एक नर बकरे का सर भी दिया। उतरती गर्मियों में चार तरबूज फटी बोरी में डलवा कर साथ कर दिये। हर क़दम पर निकल-निकल पड़ते थे। एक को पकड़ते तो दूसरा लुढ़क कर किसी और राह पर बदचलन हो जाता। जब बारी-बारी सब तड़ख़ गये तो आधे रास्ते में ही बोरी एक प्याऊ के पास पटक कर चले आये। उनके बहते रस को एक प्यासा सांड, जो पंडित जुगल किशोर ने अपने पिताजी की याद में छोड़ा था, तब तक चाव और तल्लीनता से चाटता रहा जब तक एक अल्हड़ बछिया ने उसका ध्यान उत्तम से सर्वोत्तम की ओर भटका न दिया।

जनवरी की बारिश में उनके ख़स की टट्टियों के मकान का छप्पर टपकने लगा तो तहसीलदार ने दो गाड़ी पूले मुफ़्त डलवा दिये और चार छप्पर बांधने वाले बेगार में पकड़ कर लगवा दिये। क़स्बे के तमाम छप्पर बारिश धूप और धुएं से काले पड़ गये थे, अब सिर्फ़ उनका छप्पर सुनहरा था। बारिश के बाद चमकीली धूप निकलती तो उस पर किरन-किरन अशरफ़ियों की बौछार होने लगती। इसके अलावा तहसीलदार ने लिहाफ़ के लिये बारीक धुनकी हुई रूई की एक बोरी और मुर्ग़ाबी के परों का एक तकिया भी भेजा जिसके ग़िलाफ़ पर नाजो ने एक गुलाब का फूल काढ़ा था। (बिशारत इस तकिये पर उल्टे यानी पेट के बल सोते थे……फूल पर नाक और होंठ रख कर)

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]

[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]

किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

इस भाग की अन्य कड़ियां.

1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया

पहला भाग

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

9 comments

  1. क्या नायाब शेर है! :
    “वो शेर और क़साइद का नापाक दफ़्तर
    उफ़ूनत में संडास है जिससे बेहतर”

    सभी व्यंगकारों की सारी पोस्टें गजल में बंध सकें तो क्या मजा आये! 🙂

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