लार्ड लिजलिजी : बिशारत ने एक बार यह शिकायत की कि मुझे रोजाना धूप में तीन कि. मी. पैदल चल कर आना पड़ता है तो तहसीलदार ने उसी वक़्त एक ख़च्चर उनकी सवारी में लगाने का हुक्म दे दिया। ये अड़ियल ख़च्चर उसने नीलामी में आर्मी टांसपोर्ट से ख़रीदा थी। अब बुढ़ापे में सिर्फ़ इस लायक़ रह गया था कि उद्दण्ड जाटों, बेगार से बचने वाले चमारों तथा लगान और मुफ़्त दूध न देने वाले किसानों का मुंह काला करके इस पर क़स्बे में गश्त लगवाई जाती थी। पीछे ढोल, ताशे और मंजीरे बजवाये जाते ताकि ख़च्चर बिदकता रहे। इस पर से गिर कर एक घसियारे की रीढ़ की हड्डी टूट गई, जिसने मुफ़्त में घास देने से अनाकानी की थी। इससे उसे पूरा फ़ालिज हो गया। सवारी के बजाय बिशारत को पैदल चलना अधिक गौरवशाली और शांतिदायक लगा। यह जुरूर है कि लार्ड लिजलिजी अगर साथ न होता तो तीन मील की दूरी बहुत खलती। वो रास्ते भर उससे बातें करते जाते, उसकी तरफ़ से जवाब और हुंकारा ख़ुद ही भरते फिर जैसे ही नाजो का ध्यान आता सारी थकान दूर हो जाती। डग की लम्बाई आप-ही-आप बढ़ जाती। वो तहसीलदार के नटखट लड़कों को उस समय तक पढ़ाते रहे जब तक वो वाक़या न पेश आया जिसका जिक्र आगे आयेगा। क़स्बे में वो मास्टर साहब कहलाते थे और इस हैसियत से उनकी हर जगह आवभगत होती थी। लोगों को तहसीलदार से सिफ़ारिश करवानी होती तो लार्ड लिजलिजी तक के लाड़ करते। वो रिश्वत की दूध जलेबी खा-खा कर इतना मोटा और काहिल हो गया था कि सिर्फ़ दुम हिलाता था। भोंकने में उसे आलस आने लगा था। उसका कोट ऐसा चमकने लगा था जैसा रेस के घोड़ों का होता है। क़स्बे में वो लाट लिजलिजी कहलाता था। जलने वाले अलबत्ता बिशारत को तहसीलदार का टीपू कहते थे। नाजो ने जाड़े में लिजलिजी को अपनी सदरी काट-पीट के पहना दी तो लोग उतरन पर हाथ फेर-फेर के उसपे प्यार जताने लगे। मौली मज्जन की एक बुरी आदत थी कि मास्टर पढ़ा रहे होते तो दबे पांव, सीना ताने क्लास रूम में घुस जाते, यह देखने के लिये कि वो ठीक पढ़ा रहे हैं या नहीं। लेकिन बिशारत की क्लास में कभी नहीं आते थे इसलिये कि उनके दरवाजे पर लिजलिजी पहरा देता रहता था। परिचय बढ़ा और बिशारत शिकार में तहसीलदार के साथ रहने लगे तो लिजलिजी तैर कर घायल मुर्ग़ाबी पकड़ना सीख गया। तहसीलदार ने कई बार कहा यह कुत्ता मुझे दे दो, बिशारत हर बार अपनी तरफ़ इशारा करके टाल जाते कि यह ग़ुलाम मय अपने कुत्ते के आपका ख़ादिम है। आप कहां इसके हगने, मूतने की खखेड़ में पड़ेंगे। जिस दिन से तहसीलदार ने एक क़ीमती पट्टा लखनऊ से मंगवा कर उसे पहनाया तो उसकी गिनती शहर के मुसाहिबों में होने लगी और बिशारत शहर में इतराते फिरने लगे। उसके ख़ानदानी होने में कोई शक न था। उसका पिता इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक जज का पाला हुआ प्वांयटर था जब वो इंग्लैंड जाने लगा तो अपने रीडर को बख़्श गया। लिजलिजी उसी की औलाद था, जो धीरजगंज में आकर यूं गली-गली ख़राब हो रहा था।
मौली मज्जन को लिजलिजी जहर लगता था। फ़रमाते थे कि “पहले तो कुत्ते की जात है और फिर इसे तो ऐसी ट्रेनिंग दी गई है कि सिर्फ़ शरीफ़ों को काटता है।“ इसमें शक नहीं कि जब मौली मज्जन पे भौंकता तो बहुत ही प्यारा लगता था। अब वो वाक़ई इतना ट्रेंड हो गया था कि बिशारत हुक्म देते तो स्टाफ़ रूम से उनका रूलर मुंह में दबा कर ले आता। मौली मज्जन का बयान था कि उन्होंने अपनी आंखों से इस पलीद को हाजिरी रजिस्टर ले जाते देखा, लेकिन शायद तहसीलदार और रेबीज के डर से कुछ न बोले। एक चीनी विद्वान का कथन है कि कुत्ते पर खींच कर ढेला मारने पर पहले यह जुरूर पता कर लो कि इसका मालिक कौन है।
टीचर लोग यतीमख़ाने को खा गये : धीरे-धीरे मौली मज्जन ने क़र्ज से भी हाथ खेंच लिया और ख़ुद भी खिंचे-खिंचे रहने लगे। एक दिन बिशारत चाक में लथपथ, डस्टर हाथ में लिये और रजिस्टर बग़ल में दबाये क्लास रूम से निकल रहे थे कि मौली मज्जन उन्हें आस्तीन पकड़कर अपने दफ़्तर में ले गये और उल्टे सर हो गये। शायद “हमला करने में पहल सबसे अच्छा बचाव है” वाली पालिसी पर अमल कर रहे थे। कहने लगे, “बिशारत मियां एक मुद्दत से आपकी तनख़्वाह चढ़ी हुई है और आपके कानों पर जूं नहीं रेंगती। स्कूल इस हालत में पहुंच गया। कुछ उपाय कीजिये। यतीमख़ाने के चन्दे के मद से टीचरों की तनख़्वाह दी जाती है। टीचर तो यतीमख़ाने को खा गये। डरता हूं, कहीं आप लोगों को यतीमों की आह न लग जाये।“ बिशारत यह सुनते ही आपे से बाहर हो गये। कहने लगे, सात-आठ महीने होने को आये, कुल साठ-सत्तर रुपये मिले हैं। दो बार घर से मनीआर्डर मंगवा चुका हूं, अगर इस पर भी यतीमों की आह का अंदेशा है, तो अपनी नौकरी तह कर के रखिये’’ यह कह के उन्होंने वहीं चार्ज दे दिया। मतलब यह कि डस्टर और हाजिरी रजिस्टर मौली मज्जन को पकड़ा दिया। मौली मज्जन ने एकदम पैंतरा बदला और डस्टर उनके चार्ज में वापस दे कर, हाथ झाड़ते हुए बोले, ‘‘आप कैसी बातें कर रहे हैं। बरख़ुरदार! क़सम है अल्लाह की! वो रक़म जिसे आप अपने हिसाब से साठ-सत्तर बता रहे हैं, वो भी यतीमों का पेट काट कर जकात और सदके से निकाल कर पेश की थी। इसका आप यह बदला दे रहे हैं। सर सय्यद को भी आख़िरी उम्र में ऐसे ही सदमे उठाने पड़े थेजिससे वो उठ न पाये थे। मैं सख़्त आदमी हूं। ख़ैर! सब्र से काम लीजिये। अल्लाह ने चाहा तो बक़रा-ईद की खालों से सारा हिसाब बेबाक कर दूंगा। बर्ख़ुरदार! ये आपका स्कूल है, आपका अपना यतीमख़ाना। मैं कोई अंधा नहीं हूं। आप जिस लगन से काम कर रहे हैं, वो अंधे को भी नजर आती है। आप जिन्दगी में बहुत आगे जायेंगे। अगर इसी तरह काम करते रहे, अल्लाह ने चाहा तो बीस-पच्चीस बरस में इस स्कूल के हैड मास्टर हो जायेंगे। मैं ठहरा जाहिल आदमी, मैं तो हैडमास्टर बनने से रहा। स्कूल का हाल आपके सामने है। चंदा देने वालों की तादाद घट कर इतनी हो गई कि सर सय्यद होते तो अपना सर पीट लेते। मगर आप सब अपना ग़ुस्सा मुझी पर उतारते हैं। मैं अकेला क्या कर सकता हूं। अकेला चना भाड़ तो क्या ख़ुद को भी नहीं फोड़ सकता। जुरूरत इस बात की है कि स्कूल और यतीमख़ाने को अमीरों, रईसों,तअल्लुकेदारों और आस-पास के शहरों में परिचित कराया जाये। लोगों को किसी बहाने बुलाया जाये। एक यतीम का चेह्रा दिखाना हजार भाषणों और लाख इश्तहारों से जियादा असर रखता है। यक़ीन जानिये जबसे टीचरों की तनख़्वाह रुकी है, मेरी नींदें उड़ गई हैं। बराबर सलाह मशविरे कर रहा हूं। अल्लाह के लिये अपनी तनख़्वाह की अदायगी की कोई तरकीब निकालिये। बहुत चिन्तन-मनन के बाद अब आप ही के उपाय पर अमल करने का फ़ैसला किया है। स्कूल की प्रसिद्धि के लिये एक शानदार मुशायरा होना बहुत जुरूरी है। लोग आज भी धीरजगंज को गांव समझते हैं। अभी कल ही एक पोस्टकार्ड मिला। पते में गांव धीरजगंज लिखा था। गांव धीरजगंज! ख़ून खौलने लगा। लोग अर्से तक अलीगढ़ को भी गांव समझते रहे, जब तक कि वहां फ़िल्म नहीं आई और कार के एक्सीडेंट में पहला आदमी न मरा।
काम बांटने के सिलसिले में उन्होंने बिशारत के जिम्मे सिर्फ़ शायरों का लाना-ले जाना, ठहरने और खाने के बंदोबस्त, मुशायरे की पब्लिसिटी और मुशायरा-स्थल का इंतजाम दिया। बाक़ी काम वो अकेले कर लेंगे, जिससे अभिप्राय मुशायरे की अध्यक्षता था।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड
शानदार है जी। साधुवाद है आपको!
लोग अर्से तक अलीगढ़ को भी गांव समझते रहे, जब तक कि वहां फ़िल्म नहीं आई और कार के एक्सीडेंट में पहला आदमी न मरा।
अब समझ मे आया जी कि गाव और शहर मे क्या अन्तर है..:)
अच्छा है। मुशायरे में शायद कविता भी लिजलिजी पर हो।
शानदार!
मजेदार, पढ़ना अच्छा लग रहा है, अगली कड़ी का इंतजार है…:)
वाह भई!! जारी रखिये..पढ़ते चल रहे हैं.