आज दिन तो था कुमांऊनी होली श्रंखला के अगले भाग का लेकिन कुछ तकनीकी कारणों से गाने अपलोड नहीं हो पाये. इसलिये आज खोया-पानी का अगला भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ. कुमांऊनी होली का अगला भाग कल प्रस्तुत किया जायेगा.
खोया पानी का आज का अंश बिशारत द्वारा की जा रही मुशायरे की तैयारी से संबंधित है. इसमें हास्य के ऐसे नमूने हैं जो आपको निश्चय ही हँसने पर मजबूर कर देंगे. तो लीजिये प्रस्तुत है अगला भाग.
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धीरजगंज का पहला और आख़िरी मुशायरा : मुशायरे की तारीख तय हो गई। धीरजगंज के आस-पास के लोगों को निमंत्रित करना, तरह की पंक्ति तय करना (किसी उस्ताद शायर की पंक्ति को आधार बनाकर ग़जल कहना) और शायरों का चयन करना, शायरों को कानपुर से आख़िरी ट्रेन से लाना और मुशायरे के बाद पहली ट्रेन से दफ़ा करना। मुशायरे से पहले और ग़जल पढ़ने तक उनकी मुफ़्त ख़ातिर किसी और से करवाना….इसी क़िस्म के कार्य जो सजा का दर्जा रखते थे, बिशारत के सुपुर्द किये गये। शायरों और उनके अपने आने-जाने का रेल और इक्के का किराया, शायरों का धीरजगंज में खाने और रहने का ख़र्च, पान सिगरेट इत्यादि के ख़र्च के लिये मौली मज्जन ने दस रुपये दिये और ताकीद की कि अंत में जो राशि बच जाये वो उनको मय रसीद मुशायरे के अगले दिन वापस कर दी जाये। उन्होंने सख़्ती से यह भी हिदायत की कि शायरों को आठ आने का टिकिट ख़ुद ख़रीद कर देना। नक़द किराया हरगिज न देना। बिशारत यह पूछने ही वाले थे कि शायरों के हाथ-ख़र्च और नजराने का क्या होगा कि मौली मज्जन ने स्वयं ही सवाल हल कर दिया। फ़रमाया कि शायरों से यतीमख़ाने और स्कूल के चंदे के लिये अपील जुरूर कीजियेगा। उन्हें शेर सुनाने में जरा भी शर्म नहीं आती तो आपको इस पुण्यकार्य में काहे की शर्म। अगर आपने फूहड़पन से काम न लिया तो हर शायर से कुछ न कुछ वसूल हो सकता है, मगर जो कुछ वसूल करना है मुशायरे से पहले ही धरवा लेना। ग़जल पढ़ने के बाद हरगिज क़ाबू में नहीं आयेंगे। ‘रात गयी, बात गयी’ वाला मुआमला है और जो शायर ये कहे कि वो अठन्नी भी नहीं दे सकता तो उसे तो हमारे यतीमख़ाने में होना चाहिये। कानपुर में बेकार पड़ा क्या कर रहा है।
पाठक सोच रहे होंगे इन व्यवस्थाओं के संदर्भ में स्कूल के हैडमास्टर का कहीं जिक्र नहीं आया। इसका एक उचित कारण यह था कि हैडमास्टर को नौकरी पर रखते समय उन्होंने केवल एक शर्त लगाई थी-वो यह कि हैडमास्टर स्कूल के मुआमलों में बिल्कुल हस्तक्षेप नहीं करेंगे। इस आत्मश्लाघा कहिये या अनुभवहीनता, बिशारत ने मुशायरे के लिये तरह की जो पंक्ति चुनी वो अपनी ही ग़जल से ली। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा तो यह नजर आया कि मुफ़्त में प्रसिद्धि मिल जायेगी। दूसरे उन्हें मुशायरे के लिए अलग ग़जल पर माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी। यह सोच-सोच के उनके दिल में गुदगुदी होती रही कि अच्छे-अच्छे शायर उनकी पंक्ति पर गिरह लगायेंगे। बहुत जोर मारेंगे। घंटों काव्य-चिंतन में कभी पैर पटकेंगे, कभी दिल को, कभी सर को पकड़ेंगे और शेर होते ही एक-दूसरे को पकड़ के बैठ जायेंगे। उन्होंने अट्ठारह शायरों को सम्मिलित होने के लिये तैयार कर लिया, जिनमें जौहर चुग़ताई इलाहाबादी, काशिफ़ कानपुरी और नुशूर वाहिदी भी शामिल थे, जो इसलिये तैयार हो गये थे कि बिशारत की नौकरी का सवाल था। नुशूर वाहिदी और जौहर इलाहाबादी तो उन्हें पढ़ा भी चुके थे। उन दोनों को उन्होंने तरह नहीं दी बल्कि दूसरी ग़जल पढ़ने की प्रार्थना की। ऐसा लगता था कि उन्होंने बाक़ी शायरों के चयन में यह ध्यान रक्खा था कि कोई भी शायर ऐसा न हो जो उनसे बेहतर शेर कह सकता हो। इन सब शायरों को दो इक्कों में बिठा कर वो कानपुर के रेलवे स्टेशन पर लाये। जिन पाठकों को दो इक्कों में अट्ठारह शायरों की बात में अतिशयोक्ति लगे, शायद उन्होंने न तो इक्के देखे हैं न शायर। यह तो कानपुर था वरना अलीगढ़ होता तो एक ही इक्का काफ़ी था। पाठकों की आसानी के लिये हम इस लाजवाब सवारी का सरसरी वर्णन किये देते हैं। पहले ग़ुस्ले-मय्यत के तख़्ते को काट कर चौकोर और चौरस कर लें। फिर उसमें दो अलग साइज के बिल्कुल चौकोर पहिये इस भरोसे के साथ जोत दें कि इनके चलने से अलीगढ़ की सड़कें समतल हो जायेंगी और इस प्रक्रिया में ये ख़ुद भी गोल हो जायेंगे। तख़्ता सड़क के गड्ढ़ों की ऊपरी सत्ह से छह, साढ़े छह फ़िट ऊंचा होना चाहिये ताकि सवारियों के लटके हुए पैरों और पैदल चलने वालों के सरों की सतह एक हो जाये। पहिये में सूरज की किरणों की शक्ल की जो लकड़ियां लगी होती है वो इतनी मजबूत होनी चाहिये कि नई सवारी इन पर पांव रख कर तख़्ते तक हाई जम्प कर सके। पांव के धक्के से पहिये को स्टार्ट मिलेगा। इसके बाद तख़्ते में दो बांसों के बम (इक्के और तांगों के आगे लगाये जाने वाली लकड़ी जिसमें घोड़ा जोता जाता है) लगा कर एक कमजोर घोड़े को लटका दें, जिसकी पसलियां दूर से ही गिनकर सवारियां संतोष कर लें कि पूरी हैं। लीजिये इक्का तैयार है।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा
बहुत उम्दा..शुक्रवार रविवार का इन्तजार लगवा दिया आपने. 🙂 जारी रखें.
अगली कड़ी की प्रतिक्षा है.
गजब है…वाह!