तवायफ़ के किस्से

देखा गया है कि जिस शायर को दूसरे नालायक़ शायरों से दाद लेने की उम्मीद हो वो उन्हें हूट नहीं करता। चोरियां बंद करने का आजमाया हुआ तरीक़ा यह बताया गया है कि चोर को थानेदार बना दो। हमें इसमें इस फ़ायदे के अलावा कि वो दूसरों को चोरी नहीं करने देगा एक फ़र्क़ और नजर आता है। वो ये कि पहले जो माल वो अंधेरी रातों में सेंध लगाकर बड़ी मुसीबतों से हासिल करता था, अब दिन-दहाड़े रिश्वत की शक्ल में थाने में धरवा लेगा। इसी प्रोग्राम के तहत पांच ताजा ग़जलें हकीम अहसानुल्लाह ‘तस्लीम’ से इस वादे पर लिखवा कर लाये कि जाड़े में उनके कुश्तों के लिये पचास तिलेर, बीस तीतर, पांच हरियल और बक़रईद पर पांच ख़स्सी बकरे आधे दामों धीरजगंज से ख़रीदकर भिजवायेंगे।

हकीम अहसानुल्लाह ‘तस्लीम’ मूलगंज की तवायफ़ों के ख़ास हकीम तो थे ही, गाने के लिये उन्हें फ़रमाइशी ग़जल भी लिखकर देते थे। किसी तवायफ़ के पैर भारी होते तो उसके लिये ख़ास तौर से छोटी बहर (छंद) में ग़जल कहते ताकि ठेका और ठुमका न लगाना पड़े। हकीम ‘तस्लीम’ तवायफ़ों के उच्चारण के दोष भी ठीक करते, बाक़ी चीजें ठीक होने से परे थीं। मतलब ये कि वैसे दोष सुधार चाहती थीं लेकिन सुधार से परे थी। उस जमाने में तवायफ़ों और उनके श्रद्धालुओं के दोष सुधारना अदबी फ़ैशन में शामिल था।वास्तव में ये समाजी से जियादा खुद सुधारक का ऐन्द्रिय विषय होता था, जिसका catharsis संभव ना हो, उसका बयान लज़्जत भरा था। गुनाह का जिक्र गुनाह से कहीं जियादा लज़ीज हो सकता है बशर्ते की विस्तृत हो और बयान करने वाला मानसिक और शारिरिक दोनों प्रकार से बूढ़ा हो।एमली जोला की Nana , रुसवा की उमराव जान अदा, टोलार्ज ट्रेक और देगा (Degas) की तवायफ़ों और चकलों की तस्वीरें शारिरिक वास्तविकता के सिलसिले की पहली कड़ी हैं, जबकि क़ारी सरफ़राज़ हुसैन की “शाहिदे-राअना” से रंगीनी के एक दूसरे लज़ीज़ सिलसिले की शुरुआत होती है, जिसकी कड़ियां क़ाजी अब्दुल ग़फ़्फ़ार के लैला के ख़त , गुलाम अब्बास की आनंदी की भरपूर सादगी और मंटो की प्रकट रूप में खुरदरी वास्तविकता लेकिन Inverted Romanticism से जा मिलती है|हमारे यहां तवायफ़ों से संबंधित तमाम बचकाना आश्चर्यों,खुमगुमानियों, सुनी सुनायी बातों और रोमांटिक सोचों …जिससे मिले , जहां से मिले , जिस कदर मिले ….. सबका बोझल अम्बार इस तरह लगाया जाता है कि हर तरफ़ लफ़्जों के तोता मैना फुदकते-चहकते दिखायी देते हैं। जिन्दा तवायफ़ कहीं नजर नहीं आती। रोमेंटिक मलबे तले उसके घुंघरू की आवाज़ तक सुनायी नहीं देती, इस तवाय़फ की निर्माण सामग्री उठती जवानी के मुंहासों भरे अधकचरे ज़जबात से ली गयी है, जिसकी महक रिसर्च स्कॉलरों के रगों में दौड़ती फिरती रौशनाई को मुद्दतों गरमाती रहेगी। इस इच्छा भरे शहर की तवायफ़ ने अपनी Chastity Belt की चाबी दरिया में फेंक दी है और अब उसे किसी से…हद है कि खुद लेखक और अपने आप से भी कोई खतरा नहीं है।

वो सर से है ता नाखूने-पा , नामे-खुदा , बर्फ

बात साठ-सत्तर साल पुरानी लगती है , मगर आज भी उतनी ही सच है। अलग-अलग तबक़ों के लोग तवायफ़ को ज़लील औए नफ़रत के क़ाबिल समझते थे, मगर साथ ही साथ उसकी चर्चा और चिंतन में एक लज़्ज़त महसूस किये बिना नहीं रहते थे। समाज और तवायफ़ में सुधार के बहाने उसकी ज़िन्दगी की तस्वीर बनाने में उनकी प्यास की संतुष्टि हो जाती थी। इस शताब्दी के पहले आधे भाग का साहित्य , विशेष रूप से फ़िक्शन , तवायफ़ के साथ इसी Love-hate यानि दुलार-दुत्कार के ओलते-बदलते संबंध का परिचायक है। उसने एक द्विअर्थी बयान-शैली को जन्म दिया। जिसमें बुरा भला कहना भी मजे लेने का माध्यम बन जाता है। भोगे हुए यथार्थ के पर्दे में जितनी दाद तवायफ़ को उर्दू फ़िक्शन लिखने वालों से मिली उतनी अपने रात के ग्राहको से भी न मिली होगी।

क़िबला चूं पीर शुद्ध

मूलगंज मे वहीदन बाई के कोठे पर एक बुजुर्ग जो हिल-हिल कर सिल पर मसाला पीसते हुए देखे जाते थे , उनके बारे में यार लोगों ने मशहूर कर रखा था कि तीस बरस पहले जुमे की नमाज़ के बाद वहीदन बाई के चाल-चलन के सुधार के नीयत से कोठे के जीने पर चढ़े थे, मगर उस वक़्त इस छ्प्पन छूरी की भरी जवानी थी। लिहाजा इनका मिशन बहुत तूल खींच गया।

कारे-ज़वां दराज़ है , अब मेरा इंतज़ार कर

वहीदन बाई जब फ़र्स्ट क्लास क्रिकेट से रिटायर हुई और गुनाहों से तौबा करने का तक़्ल्लुफ़ किया, जिसके लायक अब वह वैसे भी नहीं रही थी तो क़िबला आलम की दाढ़ी पेट तक आ गयी थी। अब वो उसकी बेटियों कि बावर्ची-खाने के इंतजाम तथा ग़ज़लों और ग्राहकों के चयन मे मदद करते थे।1931 में वो हज को गयी तो ये नौ सौ चूहों के अकेले प्रतिनिधि की हैसियत से उसके साथ थे.

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]

[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]

किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

इस भाग की अन्य कड़ियां.

1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा 14. शायरों की खातिरदारी 15. इक्के का आविष्कार घोड़े ने किया 16, मुशायरे की तैयारी

पहला भाग

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

2 comments

  1. दरअसल हम अपने महान नाम को लोगो मे जैसे मंटॊ दाग,फ़िराक,गालिब,और फ़िल्मकारो जैसे लोगो के साथ नही रखना चाहते थे इसी लिये न हम तवायफ़ो के कोठो पर कभी गये ना ही उनके बारे मे गूफ़्तगू करने मे अपने को शामिल करना चाहते थे.. हमारा ये टिपियाना भी इतिहास मे दर्ज ना किया जाये..:)

  2. “अलग-अलग तबक़ों के लोग तवायफ़ को ज़लील औए नफ़रत के क़ाबिल समझते थे, मगर साथ ही साथ उसकी चर्चा और चिंतन में एक लज़्ज़त महसूस किये बिना नहीं रहते थे।”

    अद्भुत!..

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