इन्टरव्यू की ग़रज से धीरजगंज जाने के लिये बिशारत सुब्ह तीन बजे ही निकल खड़े हुए। सात बजे मौलवी मुजफ़्फ़र के घर पहुंचे तो वो जलेबियों का नाश्ता कर रहे थे। बिशारत ने अपना नाम पता बताया तो कहने लगे, “आइये आइये! आप तो कान ही पुर (कानपुर ही) के रहने वाले हैं। कानपुर को गोया लखनऊ का आंगन कहिये। लखनऊ के लोग तो बड़े घमंडी और नाक वाले होते हैं। लिहाजा मैं नाश्ते के लिये झूठों भी नहीं टोकूंगा।”
“ऐ जौक़ तकल्लुफ़ में हैं तकलीफ़ बराबर (जी हां उन्होंने सरासर को बराबर कर दिया था) जाहिर है नाश्ता तो आप कर आये होंगे। सलेक्शन कमेटी की मीटिंग अंजुमन के दफ़्तर में एक घंटे बाद होगी। वहीं मुलाक़ात होगी, और हां! जिस बेहूदे आदमी से आपने सिफ़ारिश करवाई है, वो निहायत कंजूस और नामाक़ूल है।”
इस सारी बातचीत में अधिक से अधिक दो मिनट लगे होंगे। मौलवी मुजफ़्फ़र ने बैठने को भी नहीं कहा, खड़े-खड़े ही भुगता दिया। घर से मुंह अंधेरे ही चले थे, मौलवी मुजफ़्फ़र को गर्म जलेबियां खाते देखकर उनकी भूख भड़क उठी। मुहम्मद हुसैन आजाद के शब्दों में ‘भूख ने उनकी अपनी ही जबान में जायक़ा पैदा कर दिया।’ घूम फिर के हलवाई की दुकान पता की। डेढ़ पाव जलेबियां घान से उतरती हुई तुलवाईं। दोने से पहली जलेबी उठाई ही थी कि हलवाई का कुत्ता उनके पूरे अरज के ग़रारे नुमा लखनवी पाजामे के पांयचे में मुंह डाल के बड़े आवेग से लपड़-लपड़ पिंडली चाटने लगा। कुछ देर वो चुपचाप, निस्तब्ध और शांत खड़े चटवाते रहे। इसलिये कि उन्होंने किसी से सुना था कि कुत्ता अगर पीछा करे या आपके हाथ-पैर चाटने लगे तो भागना या शोर नहीं मचाना चाहिये वर्ना वो आजिज आकर सचमुच काट खायेगा। जैसे ही उन्होंने उसे एक जलेबी डाली, उसने पिंडली छोड़ दी। इसी बीच उन्होंने ख़ुद भी एक जलेबी खायी। कुत्ता अपनी जलेबी ख़त्म होते ही पांयचे में मुंह डाल के फिर शुरू हो गया। जबान भी ठीक से साफ़ नहीं की।
अब नाश्ते का ये पैटर्न बना कि पहले एक जलेबी कुत्ते को डालते तब एक ख़ुद भी खा पाते। जलेबी देने में जरा देर हो जाती तो वो लपक कर बड़े चाव और दोस्ती से पिंडली चिचोड़ने लगता, शायद इसलिये कि उसके अन्दर एक हड्डी थी। लेकिन अब दिल से कुत्ते का डर इस हद तक निकल चुका था कि उसकी ठंडी नाक से गुदगुदी हो रही थी। उन्होंने खड़े-खड़े दो बहुत महत्वपूर्ण निर्णय लिये, पहला ये कि कभी कानपुर के जाहिलों की तरह सड़क पर खड़े होकर जलेबी नहीं खायेंगे; दूसरा लखनऊ के शरीफ़ों की तरह चौड़े पांयचे का पाजामा हरगिज नहीं पहनेंगे, कम-से-कम जिंदा हालत में।
कुत्ते को नाश्ता करवा चुके तो ख़ाली दोना उसके सामने रख दिया। वो शीरा चाटने में तल्लीन हो गया तो हलवाई के पास दुबारा गये। एक पाव दूध कुल्हड़ में अपने लिये और डेढ़ पाव कुत्ते के लिये ख़रीदा ताकि उसे पीता छोड़ कर सटक जायें। अपने हिस्से का दूध गटागट पी कर क़स्बे की सैर को रवाना होने लगे तो कुत्ता दूध छोड़ कर उनके पीछे-पीछे हो लिया। उन्हें जाता देख कर पहले कुत्ते के कान खड़े हुए थे, अब उनके खड़े हुए कि बदजात अब क्या चाहता है।
तीन-चार जगह जहां उन्होंने जरा दम लेने के लिये रफ़्तार कम करने की कोशिश की या अपनी मर्जी से मुड़ना या लौटना चाहा तो कुत्ता किसी तरह राजी न हुआ। हर मोड़ पर गली के कुत्ते उन्हें और उसे घेर लेते और खदेड़ते हुए दूसरी गली तक ले जाते, जिसकी सीमा पर दूसरे ताजादम कुत्ते चार्ज ले लेते। कुत्ता बड़े अनमनेपन से अकेला लड़ रहा था। जब तक युद्ध निर्णायक ढंग से समाप्त न हो जाता या कम-से-कम अस्थायी युद्ध विराम न हो जाता अथवा दूसरी गली के शेरों से नये सिरे से लड़ाई शुरू न हो जाती, वो U.N.O. की तरह बीच में ख़ामोश खड़े देखते रहते। वो लौंडों को कुत्तों को पत्थर मारने से बड़ी सख़्ती से मना कर रहे थे। इसलिये कि सारे पत्थर उन्हीं के लग रहे थे, वो कुत्ता दूसरे कुत्तों को उनकी तरफ़ बढ़ने नहीं देता था और सच तो ये है उनकी हमदर्दी अब अपने ही कुत्ते के साथ हो गई थी। दो फ़र्लांग पहले जब वो चले थे तो वह महज एक कुत्ता था, मगर अब रिश्ता बदल चुका था। वो उसके लिये कोई अच्छा-सा नाम सोचने लगे।
उन्हें आज पहली बार मालूम हुआ कि गांव में मेहमान के आने का ऐलान कुत्ते, चोर और बच्चे करते हैं उसके बाद वो सारे गांव और हर घर का मेहमान बन जाता है।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
Technorati Tags: पुस्तक चर्चा, समीक्षा, काकेश, विमोचन, हिन्दी, किताब, युसूफी, व्यंग्य, humour, satire, humor, kakesh, hindi blogging, book, review, mustaq, yusufi, hindi satire, book review
चिट्ठाजगत चिप्पीयाँ: पुस्तक चर्चा, समीक्षा, काकेश, विमोचन, हिन्दी, किताब, युसूफी, व्यंग्य
बहुत बढ़िया!!
काकेश जी आपका शुक्रिया!!
बहुत अच्छी लगी ये कहानी ।
बहुत बढ़िया । परन्तु लोग कुत्तों को मीठा व तेलीय खाना खिलाने को मना करते हैं । वैसे मनुष्य भी इस नियम का पालन करें तो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक रहेगा ।
घुघूती बासूती
कुछ दिनों के अंतराल पर यह शृंखला पढ़ना अच्छा लगा – समय चुराकर!
“उन्होंने खड़े-खड़े दो बहुत महत्वपूर्ण निर्णय लिये, पहला ये कि कभी कानपुर के जाहिलों की तरह सड़क पर खड़े होकर जलेबी नहीं खायेंगे”
“एक पाव दूध कुल्हड़ में अपने लिये और डेढ़ पाव कुत्ते के लिये ख़रीदा ताकि उसे पीता छोड़ कर सटक जायें।”
गजब! ! !