टीपू नाम के कुत्ते : उन्हें यह देख कर दुख़ हुआ कि हलवार्इ और बच्चे उस कुत्ते को टीपू! टीपू! कह कर बुला और दुतकार रहे हैं। श्रीरंगापट्टम के भयानक रक्तपात से भरे संग्राम में टीपू सुल्तान के मरने के बाद अंग्रेजों ने कुत्तों के नाम टीपू रखने शुरू कर दिये और एक जमाने में यह उत्तरी भारत में इतना आम हुआ कि ख़ुद भारतीय भी आवारा और बेनाम कुत्तों को टीपू कह कर ही बुलाते और हुश्कारते थे, ये जाने बग़ैर कि कुत्तों का ये नाम कैसे पड़ा। नेपोलियन और टीपू सुल्तान के अलावा अंग्रेजों ने ऐसा व्यवहार अपने किसी और दुश्मन के साथ नहीं किया, इसलिये कि किसी और दुश्मन की उनके दिल में ऐसी दहशत नहीं बैठी।
तलवा देख कर क़िस्मत का हाल बतानेवाला : हालांकि उनका घर पक्का और स्कूल आधा पक्का था लेकिन मौलवी मुजफ़्फ़र ने अपनी ईमानदारी और इस्लाम के आरम्भिक काल के मुसलमानों की सादगी का नमूना पेश करने की ग़रज से अपना दफ़्तर एक कच्चे टिनपोश मकान में बना रखा था। सैलेक्शन कमेटी का दरबार यहीं लगने वाला था। बिशारत समेत कुल तीन उम्मीदवार थे। बाहर दरवाजों पर बायीं तरफ़ एक ब्लैक बोर्ड पर चाक से यह निर्देश लिखे हुए थे-
1. उम्मीदवार अपनी बारी का इन्तजार धैर्य और विनम्रता से करें।
2. उम्मीदवारों को सफ़र ख़र्च और भत्ता हरगिज नहीं दिया जायेगा। जुहर की नमाज के बाद उनके खाने का इन्तजाम यतीमखाना शम्स-उल-इस्लाम में किया गया है।
3. इन्टरव्यू के वक़्त उम्मीदवार को मुबलिग़ एक रुपये चंदे की यतीमखाने की रसीद पेश करनी होगी।
4.उम्मीदवार कृपया अपनी बीड़ी बुझाकर अन्दर दाख़िल हों।
बिशारत जब प्रतीक्षालय यानी नीम की छांव तले पहुंचे तो कुत्ता उनके साथ था। उन्होंने इशारों में कई बार उससे विदा चाही, मगर वो किसी तरह साथ छोड़ने को तैयार न हुआ। नीम के नीचे वो एक पत्थर पर बैठ गये तो वो भी उनके क़दमों में आ बैठा और अत्यधिक उचित अंतराल से दुम हिला-हिला कर उन्हें कृतज्ञ आंखों से टुकर-टुकर देख रहा था। उसका ये अंदाज उन्हें बहुत अच्छा लगा और उसकी मौजूदगी से उन्हें कुछ चैन-सा महसूस होने लगा। नीम की छांव में एक उम्मीदवार जो ख़ुद को इलाहाबाद का एल.टी. बताता था, उकड़ूं बैठा तिनके से रेत पर 20 का यंत्र बना रहा था। जिसके खानों की संख्यायें किसी तरफ़ से भी गिनी जाये, जोड़ 20 आता था। स्त्री-वशीकरण तथा अफ़सर को प्रभावित करने के लिये यह यंत्र सर्वोत्तम समझा जाता था। कान के सवालिया निशान ‘?’ के अन्दर जो एक और सवालिया निशान होता है, उन दोनों के बीच उसने ख़स के इत्र का फाया उड़स रखा था। जुल्फ़े-बंगाल हेयर ऑयल से की हुई सिंचाई के रेले, जो सर की तात्कालिक आवश्यकता से कहीं जियादा थे, माथे पर बह रहे थे। दूसरा उम्मीदवार जो कालपी से आया था, ख़ुद को अलीगढ़ का बी.ए.-बी.टी. बताता था। धूप का चश्मा तो समझ में आता था, मगर उसने गले में सिल्क का लाल स्कार्फ़ भी बांध रखा था जिसका इस चिलचिलाती धूप में यही उद्देश्य मालूम पड़ता था कि चेहरे से टपका हुआ पसीना सुरक्षित कर ले।
अगर उसका वज्न 100 पौंड कम होता तो वो जो सूट पहन कर आया था, बिल्कुल फ़िट आता। क़मीज के नीचे के दो बटन तथा पैंट के ऊपर के दो बटन खुले हुए थे सिर्फ़ सोलर हैट सही साइज का था। फ़ीरोजे की अंगूठी भी शायद तंग हो गई थी, इसलिये कि जब इन्टरव्यू के लिये आवाज पड़ी तो उसने जेब से निकाल कर छंगुलिया में पहन ली। जूते के फ़ीते, जिन्हें वो खड़े होने के बाद नहीं देख सकता था, खुले हुए थे। कहता था-गोलकीपर रह चुका हूं। इस मोटे-ताजेपन के बावजूद ख़ुद को नीम के दो शाख़े ‘Y’ में इस तरह फ़िट किया था कि दूर से एक ‘V’’ नजर आता था, जिसकी एक नोक पर जूते और दूसरी पर हैट रखा हो। ये साहब ऊपर टंगे-टंगे ही बातचीत में हिस्सा ले रहे थे और वहीं से पीक की पिचकारियां और सिगरेट की राख चुटकी बजा-बजा कर झाड़ रहे थे।
कुछ देर बाद बिशारत के पास एक जटाधारी साधू आ बैठा। अपना सोंटा उनके माथे पर रखकर कहने लगा, ‘‘क़िस्मत का हाल बताता हूं पांव के तलवे देख कर,अबे जूते उतार नहीं तो साले यहीं भस्म कर दूंगा।’’ उन्होंने उसे पागल समझकर मुंह फेर लिया। लेकिन जब उसने नर्म लहजे में कहा ‘‘बच्चा तेरे पेट पर तिल है और सीधी बग़ल में मस्सा है’’, तो उन्होंने घबरा कर जूते उतार दिये। इसलिये कि उसने बिल्कुल ठीक बताया था। थोड़ी दूरी पर एक बरगद के पेड़ के नीचे तीसरी क्लास के बच्चे ड्रिल कर रहे थे। उस समय उनसे दंड लगवाये जा रहे थे। पहले ही दंड में ‘‘हूं’’ कहते हुए सर ले जाने के बाद केवल दो लड़के हथेलियों के बल उठ पाये। बाक़ी वहीं धूल में छिपकली की तरह पट पड़े रह गये। सब गर्दन मोड़-मोड़ कर बड़ी बेबसी से ड्रिल मास्टर को देख रहे थे जो उन्हें ताना दे रहा था कि तुम्हारी मांओं ने तुम्हें कैसा दूध पिलाया है?
दरवाज़े पर सरकंडों की चिक़ पड़ी थी, जिसका निचला हिस्सा झड़ चुका था। सुतली की लड़ियां रह गई थीं। सबसे पहले अलीगढ़ के उम्मीदवार को इस तरह आवाज पड़ी जैसे अदालत में नाम मय-वल्दियत के पुकारे जाते हैं। पुकारने के अंदाज से पता लगता था कि शायद डेढ़-दो सौ उम्मीदवार हैं जो डेढ़ दो मील दूर कहीं बैठे हैं। उम्मीदवार पहले वर्णित नीम की ग़ुलैल पर से धम्म से कूद कर सोलर हैट समेत दरवाज़े में दाख़िल होने वाला था कि चपरासी ने रास्ता रोक लिया। उसने यतीमख़ाने के चंदे की रसीद मांगी और सिगरेट की डिबिया, जिसमें दो सिगरेट बाक़ी थे, लगान के तौर पर धरवा ली। फिर जूते उतरवा कर लगभग घुटनों के बल चलाता हुआ अन्दर ले गया। पचास मिनट बाद दोनों बाहर निकले। चपरासी ने दरवाज़े के पास रक्खे हुए घड़ियाल को एक बार बजाया, जिसका उद्देश्य गांव वालों और उम्मीदवारों को ख़बर करना था कि पहला इन्टरव्यू समाप्त हुआ। बाहर खड़े हुए लड़कों ने जम कर तालियां बजाईं। उसके बाद इलाहाबादी उम्मीदवार का नाम पुकारा गया जो बीसे का यंत्र मिटा कर लपक-झपक अन्दर चला गया। पचास मिनट बाद फिर चपरासी ने बाहर आ कर घंटे पर दो बार इतनी जोर से चोट लगाई कि क़स्बे के सारे मोर चिंघाड़ने लगे। (हर इन्टरव्यू का समय वही था जो घंटों का) चपरासी ने आंख मार कर बिशारत को अन्दर चलने को कहा।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
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बहुत खूब! एक बार फिर से पढ लिये। बीड़ी बुझाकर! 🙂
तो आप स्लेक्ट हुये जी क्योकी हमे याद है पिछली बार जब आप मिले थे तो आपने सिगरेट बुझाकर भरी दिब्बी हमे पेश करदी थी..:)
बिड़ी बुझाकर पढ़ूंगा तो फिर गाना याद आ जाएगा, ‘सुट्टा ना मिला……” 😉
🙂 पढ़ लिया..अगले अंक का इन्तजार है.
YOU ARE BEST