गाली,गिनती और गंदा लतीफा तो अपनी मादरीजबान में ही मजा देता है

[ री-कैप : “खोया पानी” यह है उस व्यंग्य उपन्यास का नाम जो पाकिस्तान के मशहूर व्यंग्यकार मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताब आबे-गुम का हिन्दी अनुवाद है. इस पुस्तक के अनुवाद कर्ता है ‘लफ़्ज’ पत्रिका के संपादक श्री ‘तुफैल चतुर्वेदी’ जी. पुस्तक क्या है हास्य का पटाख़ा है और इतना महीन व्य़ंग्य की आपके समझ आ जाये तो मुँह से सिर्फ वाह वाह ही निकलती है. इस उपन्यास की टैग लाइन है “एक अद्भुत व्यंग्य उपन्यास” जो इस उपन्यास पर सटीक बैठती है.]

khoya_pani_front_cover पिछ्ले भाग में आपको बताया था कि यह उपन्यास ऎसे अनगिनत जुमलों से भरा है जो आपको सोचने पर बाध्य कर देते हैं. आइये कुछ और पढ़ें.

एक मजेदार पात्र हैं किबला.देखिये कैसे हैं.

किबला मुंहफट, बदतमीज़ मशहूर ही नहीं थे, थे भी। वो दिल से, बल्कि बेदिली से भी, किसी की इज़्जत नहीं करते थे। दूसरे को ज़लील करने का कोई-न-कोई कारण ज़ुरूर निकाल लेते। मिसाल के तौर पर अगर किसी की उम्र उनसे एक महीना भी कम हो तो उसे लौंडा कहते और अगर एक साल ज़ियादा तो बुढ़ऊ।

वो हमेशा मेरे कुछ ना कुछ लगते थे।जिस जमाने में मेरे ससुर नहीं बने थे तो फूफा हुआ करते थे और फूफा बनने से पहले मैं उन्हें चचा हुजूर कहा करता था। इससे पहले भी वो मेरे कुछ और जुरूर लगते होंगे, मगर उस वक़्त मैंने बोलना शुरु नहीं किया था। हमारे यहाँ मुरादाबाद और कानपुर में रिश्ते-नाते उबली हुई सिवइयों की तरह उलझे और पेच-दर-पेच गुंथे हुए होते हैं।

किबला के बारे में बताते हुए वह आगे कहते हैं.

मिज़ाज,ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था 

एक बार किबला के मकान की जांच करने के लिये जब अधिकारी आता है तो देखिये किबला उससे कैसे निपटते हैं.

अफसर ने कहा. ‘बड़े मियां सुना नहीं? एलॉटमेट आर्डर दिखाओ।’ किबला ने बड़ी शांति से अपने बायें पैर का सलीम-शाही जूता उतारा और उतने ही आराम से कि उसे, खयाल तक न हुआ कि क्या करने वाले हैं, उसके मुंह पर मारते हुए बोले ‘यह है यारों का एलॉटमेंट आर्डर! कार्बन कॉपी भी देखेंगे?’ उसने अब तक, यानी ज़लील होने तक, रिश्वत-ही-रिश्वत खायी थी, जूते नहीं खाये थे। फ़िर कभी इधर का रुख नहीं किया।

उनकी कहानी ‘हवेली’ का कथानक कोई 60-70 साल पहले का है. उस समय की परिस्थिति का वर्णन कहते हुए युसूफ़ी साहब कहते हैं.

जहां तक हमें याद पड़ता है, उन दिनों कुर्सी सिर्फ दो अवसरों पर निकाली जाती थी। एक तो जब हकीम, वैद्य,होम्योपैथ, पीर, फ़क़ीर और सयानों से मायूस हो कर डाक्टर को घर बुलाया जाता था। उस पर बैठ कर वो जगह-जगह स्टेथेस्कोप लगा कर देखता कि मरीज़ और मौत के बीच जो खाई थी, उसे इन महानुभावों ने अपनी दवाओं और ताबीज़, गंडों से किस हद तक पाटा है। उस समय का दस्तूर था कि जिस घर में मुसम्मी या महीन लकड़ी की पिटारी में रुई में रखे हुए पांच अंगूर आयें या सोला-हैट पहने डाक्टर और उसके आगे-आगे हटो-बचो करता हुआ तीमारदार उसका चमड़े का बैग उठाये आये तो पड़ोस वाले जल्दी-जल्दी खाना खा कर खुद को शोक व्यक्त करने और कन्धा देने के लिये तैयार कर लेते थे।

यह भी देखने में आया है कि कई बार ख़ानदान के दूर-पास के बुज़ुर्ग छठी-सातवीं क्लास तक फ़ेल होने वाले लड़कों की, संबंधें की निकटता व क्षमता के हिसाब से अपने निजी हाथ से पिटाई भी करते थे, लेकिन जब लड़का हाथ-पैर निकालने लगे और इतना सयाना हो जाये कि दो आवाज़ों में रोने लगे यानी तेरह, चौदह साल का हो जाये तो फिर उसे थप्पड़ नहीं मारते थे, इसलिये कि अपने ही हाथ में चोट आने और पहुंचा उतरने का अन्देशा रहता था, केवल चीख-पुकार, डांट से काम निकालते थे। हर बुज़ुर्ग उसकी सर्टिफाइड नालायकी की अपने झूठे शैक्षिक रिकार्ड से तुलना करता और नई पौध में अपनी दृष्टि की सीमा तक कमी और गिरावट के आसार देख कर इस सुखद निर्णय पर पहुंचता कि अभी दुनिया को उस जैसे बुज़ुर्ग की ज़ुरूरत है। भला वो ऐसी नालायक नस्ल को दुनिया का चार्ज देकर इतनी जल्दी कैसे विदा ले सकता है।

कुछ और मोती चुनिये इस किताब के.

विज्ञापन में मौलवी सैय्यद महुम्मद मुज्जफर ने जो कि स्कूल के संस्थापक, व्यवस्थापक, संरक्षक, कोषाध्यक्ष और ग़बनकर्ता का नाम था, सूचित किया था कि उम्मीदवार को लिखित आवेदन करने की आवश्यकता नहीं, अपनी डिग्री और नेकचलनी के दस्तावेशी सुबूत के साथ सुब्ह आठ बजे स्वयं पेश हो। बिशारत की समझ में न आया कि नेकचलनी का क्या सुबूत हो सकता है, बदचलनी का अलबत्ता हो सकता है। उदाहरण के लिये चालान, मुचलका, गिरफ्तारी-वारंट, सत्ता के आदेश की नक़्ल या थाने में दस-नम्बरी बदमाशों की लिस्ट। पांच मिनट में आदमी बदचलनी तो कर सकता है नेकचलनी का सुबूत नहीं दे सकता।

अपनी ग़ज़लों और शेरों का चयन.उन्होंने दिल पर पत्थर बल्कि पहाड़ रख कर किया था। शेर कितना ही घटिया और कमज़ोर क्यों न हो उसे स्वयं काटना और रद्द करना उतना ही मुश्किल है जितना अपनी औलाद को बदसूरत कहना या जंबूर से खुद अपना हिलता हुआ दांत उखाड़ना। ग़ालिब तक से ये पराक्रम न हो सका।

कभी अपने बुज़ुर्ग या बॉस या अपने से अधिक बदमाश आदमी को सही रास्ता बताने की कोशिश न करना।उन्हें ग़लत राह पर देखो तो तीन ज्ञानी बंदरों की तरह अंधे बहरे और गूंगे बन जाओ!

युसूफी साहब जब किसी स्थिति का वर्णन करते हैं तो उसमें सहज ही हास्य आ जाता है. उनके वर्णन इतने मजेदार हैं कि पूरा का पूरा दृश्य आपके आंखों के सामने से गुजर जाता है.देखिये उनका कलात्मक वर्णन. बिशारत जब इंटरव्यू के लिये प्रतीक्षा कर रहे थे तो देखिये क्या होता है…

नीम की छांव में एक उम्मीदवार जो खुद को इलाहाबाद का एल.टी. बताता था, उकडूं बैठा तिनके से रेत पर 20 का यंत्र बना रहा था। जिसके ख़ानों की संख्यायें किसी तरप़फ से भी गिनी जाये, जोड़ 20 आता था। स्त्री-वशीकरण तथा अफसर को प्रभावित करने के लिये यह यंत्र सर्वोत्तम समझा जाता था। कान के सवालिया निशान `?´ के अन्दर जो एक और सवालिया निशान होता है, उन दोनों के बीच उसने खस के इत्र का फाया रखा था। ज़ुल्फे-बंगाल हेयर ऑयल से की हुई सिंचाई के रेले, जो सर की तात्कालिक आवश्यकता से कहीं ज़ियादा थे, माथे पर बह रहे थे। दूसरा उम्मीदवार जो कालपी से आया था, खुद को अलीगढ़ का बीएड –बी.टी. बताता था। धूप का चश्मा तो समझ में आता था, मगर उसने गले में सिल्क का लाल स्कार्फ़ भी बांध रखा था जिसका इस चिलचिलाती धूप में यही उद्देश्य मालूम पड़ता था कि चेहरे से टपका हुआ पसीना सुरक्षित कर ले। अगर उसका वजन 100 पौंड कम होता तो वो जो सूट पहन कर आया था, बिल्कुल फ़िट आता। क़मीज के नीचे के दो बटन तथा पैंट के ऊपर के दो बटन खुले हुए थे सिर्फ़ सोलर हैट सही साइज़ का था।

उसी तरह जब उन्हे उपहार में चार तरबूज दिये जाते हैं तो ….

उतरती गर्मियों में चार तरबूज़ फटी बोरी में डलवा कर साथ कर दिये। हर क़दम पर निकल-निकल पड़ते थे। एक को पकड़ते तो दूसरा लुढ़क कर किसी और राह पर बदचलन हो जाता। जब बारी-बारी सब तड़क गये तो आधे रास्ते में ही बोरी एक प्याऊ के पास पटक कर चले आये। उनके बहते रस को एक प्यासा सांड, जो पंडित जुगल किशोर ने अपने पिताजी की याद में छोड़ा था, तब तक चाव और तल्लीनता से चाटता रहा जब तक एक अल्हड़ बछिया ने उसका ध्यान उत्तम से सर्वोत्तम की ओर भटका न दिया।

शायरों को लपेटने की इस किताब में विशेष व्यवस्था की गयी है.देखिये.

शेरो-शायरी या नॉविलों में देहाती ज़िन्दगी को रोमेंटिसाइज़ करके उसकी निश्छलता, सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौन्दर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इन्टेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं। किसान से मिलने से पहले उसके ढोर-डंगर, घी के फ़िंगर प्रिन्ट वाले धातु के गिलास, जिन हाथों से उपले पाथे उन्हीं हाथों से पकाई हुई रोटी, हल, दरांती, मिट्टी से खुरदुराये हुए हाथ, बातों में प्यार और प्याज़ की महक, मक्खन पिलायी हुई मूंछें सबसे एक ही वक़्त में गले मिलना पड़ता है।

फरमाया कि शायरों से यतीमखाने और स्कूल के चंदे के लिये अपील जरुर कीजियेगा। उन्हे शेर सुनाने में जरा भी शर्म नही आती, तो आपको इस पुण्यकार्य में काहे की शर्म।

कुछ और प्यास बुझा लें.

जो व्यक्ति हाथी की लगाम की तलाश करता रह जाये, वो कभी उस पर चढ़ नहीं सकता। जाम उसका है, जो बढ़कर खुद साकी को जाम-सुराही समेत उठा ले।

विदेश घूमने और देश से दूर रहने का एक लाभ ये देखा कि देश और देशवासियों से प्यार न केवल बढ़ जाता है, बल्कि अहैतुक हो जाता है-

गाली, गिनती और गंदा लतीफा तो अपनी मादरीजबान में ही मजा देता है।

पाकिस्तान की अफवाहों में सबसे बड़ी खऱाबी ये है कि सच निकलती हैं।

पाकिस्तान में जो लड़के पढ़ाई में फिसड्डी होते हैं, वो फौज में चले जाते हैं और जो फौज के लिए मेडिकली अनफिट होते हैं, वो कालिजों में प्रोफेसर बन जाते हैं।

हमारा ख्याल है कि इक्के का आविष्कार किसी घोड़े ने किया होगा, इसीलिये इसके डिजाइन में इस बात का ध्यान रखा गया है कि घोड़े से अधिक सवारी को परेशानी उठानी पड़े।

वस्तुत रास्ते नहीं बदलते इंसान बदल जाता है। सड़क कहीं नहीं जाती वो तो वहीं की वहीं रहती है मुसाफिर खुद कहां से कहां पहुंच जाता है। राह कभी गुम नहीं होती राह चलने वाले गुम हो जाते हैं।

कुछ और जुम्लों और यूसूफी साहब के बारे में जानने के लिये पिछ्ली पोस्ट देखें. यदि आप पुस्तक मगांना चाहें तो नीचे दिये पते से मंगा लें. पुस्तक की खूबियों को देखते हुए पुस्तक का मूल्य काफी कम है. मंगाते समय इस पोस्ट का ज़िक्र भी कर दें तो क्या पता ‘तुफ़ैल’ साहब कुछ विशेष डिस्काउंट की व्यवस्था कर दें यदि ना भी करें तब भी किताब खरीद कर पढ़ने योग्य तो है ही. 

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किताब डाक से मंगाने का पता:

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

 

 

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

13 comments

  1. देखो काहे पंगा ले रहे हो.. हम किताब खरीदने वाले नही है..हमे मांग कर उठा कर पढने की आदत है..तो या तो तुम पढ चुके हो अब हमे उधार दे देदो या फ़िर हम तुम्हारे घर आने की जुगत लगाते है..:)

  2. पंगेबाज अपने लिये न खरीदें मगर हम दावा करते हैं कि वो हमें खरीद कर भेंट करेंगे… 🙂

    बेहतरीन लिखा है.

  3. पाकिस्तान की अफवाहों में सबसे बड़ी खऱाबी ये है कि सच निकलती हैं।

    –दिल जीत पंक्ति है.

  4. शानदार किताब है। कल फोन किया तो मिला नहीं था। अब तुरंत किताब पाने की इच्छा हो रही है। काकेश भाई, हमको ई किताब दिलवा दो। अपना जो होता हो सो ले लेना। प्रकाशक से 🙂
    हम कलहैंये भेजते हैं मनीआर्डर! शुक्रिया इस पोस्ट के लिये भी। आलोक पुराणिक की मिलाकर तीन पोस्ट हो गयीं इस किताब के बारे में। अब तो खरीद ही लेनी चाहिये। 🙂

  5. क्या महीन लिखा है यूसुफी साहब ने। इस किताब के अंशों का परिचय हमसे कराने का शुक्रिया।

    यह भी बहुत खूब रहा कि हमने सुकुल जी की टिप्पणी भी देखे ली
    । जब वो इतने परेशान हों किताब पाने के लिये तब हम तो निश्चिंत हुये। वे तो एड़ी चोटी का ज़ोर लगा कर इसे तुरत-फुरत हासिल कर ही लेंगे और फिर क्या। हमें तो इसे खरीदने क्या, पढ़ने तक की ज़ेहमत भी नहीँ उठानी होगी, अलबत्ता आनंद पूरा मिलेगा, यह गारंटी है। हमारे बिना पढ़े ही शुकुल हमें तो सुना ही देंगे इसके अनेक चुम्बकीय जुमले और अंश।

  6. और हाँ, जैसा शुकुल जी ने लिखा
    हमको ई किताब दिलवा दो
    तो फ़ुरसतिया जी, यह नोट किया जाय कि यह वो वाली ई-किताब नहीँ है कि दनादन डाऊनलोड कर लें, हाँ जब आप पढ़ लेंगे और यदि अपने चिट्ठे पर चेंप देंगे तो उसके बाद ज़रूर ई-किताब के फार्मेट में आ जायेगी।

  7. कमाल की बुनावट है.

    “पाकिस्तान की अफवाहों में सबसे बड़ी खऱाबी ये है कि सच निकलती हैं।” मजा आ गया. और अलोटमेंट लेटर भी कमाल का था. 🙂 🙂

  8. अब तो हम भी पूरी किताब पढ़ने को आतुर हैं जी। जो फ़िस्स्डी निकलते हैं फ़ौज में भरती और जो मेडिकली अनफ़िट वो प्रोफ़ेसर्…हा हा हा

  9. kya kahu kaisey kahu samj main nahi aa raha hai—–jab likha ki sand taleena se kharboojey ka ras chat raha tha—tab tak nahi choda jab tak ki—-ek alhad bachiya ne uttam se sarvottam ki aor ishara na kiya—wah —wah dhany hai lekhak aor dhaya hai lekhani—dubara wah waha wahaaa

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