[किबला की दुकान तो चल गयी लेकिन अचानक उन्हे पाकिस्तान जाना पड़ा. फिर देखिये आगे क्या क्या हुआ.]
माशूक के होंठ
अब के दुकान चली और ऐसी चली कि औरों ही को नहीं स्वयं उन्हें भी आश्चर्य हुआ। दुकान के बाहर उसी शिकार की जगह यानी केबिन में उसी ठस्से से गाव तकिये की टेक लगा कर बैठते, मगर आसन पसर गया था। पैरों की दिशा अब फ़र्श के मुकाबले आसमान की ओर अधिक हो गयी थी। जेल में रहने से पहले क़िबला ग्राहक को हाथ से निवेदन करने वाले इशारे से बुलाते थे अब सिर्फ़ तर्जनी के हल्के से इशारे से तलब करने लगे। उंगली को इस तरह हिलाते जैसे डावांडोल पतंग को ठुमकी देकर उसकी दिशा दुरुस्त कर रहे हों। हुक़्का पीते कम गुड़गुड़ाते ज़ियादा थे। बदबूदार धुऐं का छल्ला इस तरह छोड़ते कि ग्राहक की नाक में नथ की तरह लटक जाता। अक्सर कहते “वाजिद अली शाह, जाने-आलम पिया ने, जो खूबसूरत नाम रखने में अपना जोड़ न रखते थे, हुक़्के का कैसा प्यारा नाम रखा था….. लबे-माशूक़ (माशूक़ के होंठ )”. जो व्यक्ति कभी हुक्के के पास से भी गुजरा है वो अच्छी तरह समझ सकता है कि जाने-आलम पिया का पाला कैसे होठों से पड़ा होगा। चुनांचे अपदस्थ होने के बाद वो सिर्फ हुक़्का अपने साथ मटियाबुर्ज ले गये। परीखाने के सारे माशूक़ लखनऊ में ही छोड़ दिये, चूंकि माशूक़ को नली पकड़ के गुड़गुड़ाया नहीं जा सकता।
बल्ली पे लटका दूंगा
कुछ दिन बाद उनका लंगड़ा दुश्मन यानी पहलवान सेठ दुकान बढ़ा कर कहीं और चला गया। क़िबला बात बेबात हरेक को धमकी देने लगे कि साले को बल्ली पे लटका दूंगा। आतंक का यह हाल कि इशारा तो बहुत बाद की बात है, क़िबला जिस ग्राहक की तरफ़ निगाह उठा कर भी देख लें, उसे कोई दूसरा नहीं बुलाता था। अगर वह खुद से दूसरी दुकान में चला भी जाये तो दुकानदार उसे लकड़ी नहीं दिखाता था। एक बार ऐसा भी हुआ कि सड़क पर यूं ही कोई राहगीर मुंह उठाये जा रहा था कि क़िबला ने उसे उंगली से अंदर आने का इशारा किया। जिस दुकान के सामने से वह गुजर रहा था, उसका मालिक और मुनीम उसे घसीटते हुए क़िबला की दुकान में अंदर धकेल गये। उसने रुआंसा हो कर कहा कि मैं तो मूलगंज पतंगों के पेच देखने जा रहा था।
वो इंतज़ार था जिसका, ये पेड़ वो तो नहीं
फिर यकायक उनका कारोबार ठप हो गया। वो कट्टर मुस्लिम लीगी थे। इसका असर उनके बिज़नेस पर पड़ा। फिर पाकिस्तान बन गया। उन्होंने अपने नारे को हक़ीकत बनते देखा और दोनों की पूरी क़ीमत अदा की। ग्राहकों ने आंखें फेरलीं, दोस्त, रिश्तेदार जिनसे वो तमाम उम्र लड़ते झगड़ते और नफ़रत करते रहे, एक-एक करके पाकिस्तान चले गये, तो एक झटके के साथ यह खुला कि वो इन नफ़रतों के बगै़र ज़िंदा नहीं रह सकते, और जब इकलौती बेटी और दामाद भी अपनी दुकान बेच के कराची सिधरे तो उन्होंने भी अपने तम्बू की रस्सियां काट डालीं। दुकान औने-पौने एक दलाल के हाथ बेची। लोगों का कहना था कि “बेनामी´ सौदा है। दलाल की आड़ में दुकान दरअसल उसी लंगड़े पहलवान सेठ ने ख़रीद कर उनकी नाक काटी है। हल्का सा शक तो क़िबला को भी हुआ था मगर
“अपनी बला से, बूम (उल्लू) बसे या हुमा* रहे” (*वह चिड़िया जो किसी के सर पर साया कर दे, वह राजा हो जाता है ) वाली स्थिति थी। एक ही झटके में पीढ़ियों के रिश्ते नाते टूट गये और क़िबला ने पुरखों की जन्मभूमि छोड़ कर सपनों की ज़मीन की राह ली। सारी उम्र शीश महल में अपने मोरपंखी अभिमान का नाच देखते-देखते क़िबला कराची आये तो न सिर्फ ज़मीन अजनबी लगी, बल्कि अपने पैरों पर नज़र पड़ी तो वो भी किसी और के लगे। खोलने को तो मार्किट में हरचंद राय रोड पर लश्तम पश्तम दुकान खोल ली, मगर बात नहीं बनी। गुजराती में कहावत है कि पुराने मटके पर नया मुंह नहीं चढ़ाया जा सकता। आने को तो वह एक नई हरी-भरी ज़मीन में आ गये, मगर उनकी बूढ़ी आंखें पिलखन को ढूंढ़ती रहीं। पिलखन तो दूर उन्हें कराची में नीम तक नज़र न आया। लोग जिसे नीम बताते थे, वह दरअस्ल बकाइन थी, जिसकी निंबोली को लखनऊ में हकीम साहब पेचिश और बवासीर के नुस्ख़ों में लिखा करते थे।
कहां कानपुर के देहाती ग्राहक, कहां कराची के नखरीले सागौन खरीदने वाले। वास्तव में उन्हें जिस बात से सबसे ज़ियादा तकलीफ़ हुई वो ये कि यहां अपने आस-पास, यानी अपने कष्ट की छांव में एक व्यक्ति भी ऐसा नज़र नहीं आया जिसे वो अकारण और निर्भय होकर गाली दे सकें। एक दिन कहने लगे “यहां तो बढ़ई आरी का काम ज़बान से लेता है। चार-पांच दिन हुए, एक बुरी ज़बान वाला, धृष्ट बढ़ई आया। इक़बाल मसीह नाम था। मैंने कहा अबे परे हट कर खड़ा हो। कहने लगा ईसा मसीह भी तो तुरखान थे। मैंने कहा, क्या कुफ्र बकता है? अभी बल्ली पे लटका दूंगा। कहने लगा, ओह लोक वी ऐही, कहंदे सां! (वो लोग भी ईसा से यही कहते थे!)
जारी……………… ===========================================
पिछले अंक : 1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़ 5. हवेली की पीड़ा कराची में 6. हवेली की हवाबाजी 7. वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है 8. इम्पोर्टेड बुज़ुर्ग और यूनानी नाक 9. कटखने बिलाव के गले में घंटी 10. हूँ तो सज़ा का पात्र, पर इल्ज़ाम ग़लत है 11. अंतिम समय और जूं का ब्लड टैस्ट 12. टार्जन की वापसी
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किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
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पहली बार ऐसा हुआ की दास्ताँ-ऐ-किबला पढ़ कर हँसी नही आई बल्कि आँखे नम हो गई. अपनी धरती से अलग होने का किबला का दर्द इसमे महसूस होता है. लेकिन एक उम्मीद है कि अगले अंक मे किबला फ़िर अपने रंग मे दिखाई देंगे.
🙂
बालकिशन जी का कहना सही है!!
आज तो यह पढ़कर किबला से सहानुभूति सी हो रही है!!
काकेश जी, काफी मंझे हुए खिलाड़ी लगते हैं आप..
बाकायेदा “फौलो” कर रहा हूँ आजकल आपका ब्लॉग लेखन
हुजूर , शुक्रिया किबला को लगातार पढ़वाने के लिए ।
सदके जावां, इस अंदाज़े बयां पर ।
इंतेज़ार है, अगली कड़ी का । माशूक के होंठों की मिठास बरकरार रहे, पढ़ कर ये दिल बड़ा कच्चा कच्चा सा हो रहा है ।
khanhaa Hai aajkal?
ये क्या काकेश जी
शीर्षक इतना झकास और अन्दर एकदम खलास….
खैर कोई बात नहीं, हमने बकायेदा नजरें गदाई हुई हैं.. अगली कड़ी का इन्तेजार रहेगा.