हरिवंशराय बच्चन और मधुशाला को जानने वाले बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्होने मधुशाला पर दो पुस्तकें लिखी. पहली पुस्तक जो 1933 में लिखी वह थी “खैयाम की मधुशाला” . इस पुस्तक में जॉन फिट्ज़राल्ड की पुस्तक के प्रत्येक पद का अनुवाद था. दूसरी पुस्तक जो लिखी गयी वो थी “मधुशाला”. अधिकांश लोग इस पुस्तक के बारे में ही जानते हैं. सामान्यत: जब हम बच्चन की मधुशाला की चर्चा करते हैं या उनका कोई पद उदघृत करते हैं तो इसी किताब से करते हैं.मन्नाडे की आवाज में जो कैसेट भी निकला वह भी दूसरी किताब मधुशाला पर था.
आइये पहले “खैयाम की मधुशाला “की चर्चा करें. यह किताब 1933 में आयी और इसमें जॉन के प्रत्येक पद का हिन्दी अनुवाद था .
एक उदाहरण देखिये
The Moving Finger writes; and, having writ,
Moves on: nor all your Piety nor Wit
Shall lure it back to cancel half a Line,
Nor all your Tears wash out a Word of it
किसी की लौह लेखनी भाल शिला पर लिख जाती कुछ लेख
न फिर फिरती पीछे की ओर, लिखा क्या , इतना तो ले देख
न कम कर देगी आधी पंक्ति देख सब तेरी भक्ति , विवेक ,
न तेरे आंसू की ही धार सकेगी धो लघु अक्षर एक !
इस प्रकार जॉन के 75 पदों का अनुवाद बच्चन ने 1933 में किया. इस पुस्तक के तीसरे संस्करण में हिन्दी के प्रत्येक पद के साथ मूल पुस्तक का अंग्रेजी पद भी दिया गया. यह पहले व दूसरे संस्करण में नहीं था. तीसरे संस्करण ने बच्चन ने एक भूमिका भी लिखी जिसमें उन्होंने मधुशाला के रचे जाने के बारे में उनकी सोच का परिचय देते हुए उमर खैय्याम और जॉन फिट्जराल्ड की रचना प्रक्रिया और उस समय की परिस्थितियों पर विशद टिप्पणी की थी.
दूसरी पुस्तक 1934 में आयी जो इन्ही भावों पर अधारित एक स्वतंत्र पुस्तक थी. इसमें 135 रुबाइयाँ हैं. इसका सस्वर पाठ भी बच्चन कई कार्यक्रमों और कवि-सम्मेलनों में करते रहे. मधुशाला की रूबाइयो का प्रथम पाठ बच्चन ने सन् 1934-35 में बनारस में किया था. अपने प्रथम पाठ से अब तक मधुशाला स्वर्ण जयंती से गुजर के हीरक जयंती मना चुकी है. 1984 में इसकी स्वर्ण जयंती के अवसर पर उन्होंने एक नई रुबाई भी लिखी थी
घिस-घिस जाता कालचक्र में हर मिट्टी के तनवाला
पर अपवाद बनी बैठी है मेरी यह साक़ी बाला
जितनी मेरी उम्र वृद्ध मैं, उससे ज़्यादा लगता हूँ
अर्धशती की होकर के भी षोडष वर्षी मधुशाला
कवि सम्मेलनों में मधुशाला के साथ साथ इस पर बनी पैरोडियाँ भी खूब चलीं. प्रोफेसर मनोरजंन प्रसाद सिन्हा, जो कि उस कवि सम्मेलन में सभापति थे जिसमें बच्चन से मधुशाला का पाठ किया था, ने अपने एक संस्मरण में खुद उन्ही के द्वारा बनायी गयी कुछ पैरोडियों की चर्चा की ही.वह पैरोडियां कुछ ऎसी हैं.
भूल गया तस्बीह नमाजी, पंडित भूल गया माला,
चला दौर जब पैमानों का, मग्न हुआ पीनेवाला।
आज नशीली-सी कविता ने सबको ही बदहोश किया,
कवि बनकर महफ़िल में आई चलती-फिरती मधुशाला।
रूपसि, तूने सबके ऊपर कुछ अजीब जादू डाला
नहीं खुमारी मिटती कहते दो बस प्याले पर प्याला,
कहाँ पड़े हैं, किधर जा रहे है इसकी परवाह नहीं,
यही मनाते हैं, इनकी आबाद रहे यह मधुशाला।
भर-भर कर देता जा, साक़ी मैं कर दूँगा दीवाला,
अजब शराबी से तेरा भी आज पड़ा आकर पाला,
लाख पिएँ, दो लाख पिएँ, पर कभी नहीं थकनेवाला,
अगर पिलाने का दम है तो जारी रख यह मधुशाला।
इसी संस्मरण में वह कहते हैं.
उस शाम बच्चन को सुनकर नवयुवक पागल हो रहे थे। पागल मैं भी हो रहा था किन्तु वह पागलपन उसी प्रकार का न रहा। यह गिलहरी कुछ दूसरा ही रंग लाई; और वह रंग प्रकट हुआ दूसरे दिन के कवि-सम्मेलन में जो केवल ‘मधुशाला’ का सम्मेलन था-बच्चन का और मेरा सम्मेलन था-‘मधुशाला’ का सर्वप्रथम कवि सम्मेलन-केवल ‘मधुशाला’ का। बच्चन ने अपनी अनेकानेक रुबाइयाँ सुनाई थीं और मैंने केवल आठ। बच्चन आदि और अन्त में थे और मैं था मध्य में, इण्टरवल में, जब सुनाते-सुनाते वे थक-से गए थे और शीशे के गिलास में सादे पानी से गले की खुश्की मिटा रहे थे।
‘मधुशाला’ की चुनी हुई बीस रूबाइयों का रेकार्ड दि ग्रामोफ़ोन कम्पनी आफ इंडिया लिमिटेड द्वारा तैयार किया गया.इसका संगीत जयदेव ने दिया.पहली रुबाई बच्चन के स्वर में है, शेष रुबाइयाँ मन्ना डे के स्वर में हैं.
[यह श्रंखला कुछ खास चल नहीं रही. ऎसा टिप्पणीयाँ और आंकड़े बताते हैं. इसलिये अगले अंक में इसे समाप्त कर रहा हूँ]
क्रमश :….
[इस श्रंखला का अंतिम भाग अगले गुरुवार को प्रकाशित किया जायेगा]
इस श्रंखला के पिछ्ले लेख.
1. खैयाम की मधुशाला.. 2. उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद.. 3. मधुशाला में विराम..टिप्पणी चर्चा के लिये 4. उमर की रुबाइयों के अनुवाद भारतीय भाषाओं में 5. मैथिलीशरण गुप्त का अनुवाद 6. खैयाम की रुबाइयाँ रघुवंश गुप्त की क़लम से 7. मधुज्वाल:मैं मधुवारिधि का मुग्ध मीन 8.कभी सुराही टूट,सुरा ही रह जायेगी,कर विश्वास !! 9. उमर की मधुशाला के निहितार्थ
चिट्ठाजगत चिप्पीयाँ: उमर खैय्याम, मधुशाला, रुबाई, बच्चन, हरिवंश, फिट्जराल्ड, मदिरा, रधुवंश गुप्त, सुमित्रानंदन पंत
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“[यह श्रंखला कुछ खास चल नहीं रही. ऎसा टिप्पणीयाँ और आंकड़े बताते हैं. इसलिये अगले अंक में इसे समाप्त कर रहा हूँ] ”
काकेश जी
आप की पीड़ा में समझ रहा हूँ. आप भी कहाँ कोयलों के ढेर में हीरे ढूँढ रहे हैं….न लोगों में अब वो भावना है और न साहित्य के प्रति लगाव जो बच्चन की मधुशाला या खैय्याम की रूबाईयां पढ़ें…लोग चित्रों में खैय्याम के संग दिखाई गयी सुरा और सुंदरी में ज्यादा रूचि रखने लगे हैं…ज़माना बदल गया है जनाब.
नीरज
नीरज जी कड़वा सच बता रहे हैं। लोगों के पास ऑप्शन हैं – “मधुशाला” देखें या मधुशाला!
पर यह समस्या तो कमोबेश हर युग में रही होगी?
क्या आप भी टिप्पणी और आकड़ों मे विश्वास करते है।
अरे भैया, मैंने खुद ने इस श्रृंखला के सभी अंक पढ़े हैं परंतु टिप्पणी नहीं की है। इसलिए आप आँकड़ों और टिप्पणी के फेर में न पड़ें और इसे जारी रखें। जिसे ज़रूरत होगी वह ढूँढते हुए चला आएगा। इस परमार्थ को बंद न करें।
काकेश जी,
शरत चंद्र के उपन्यास बंगाल में बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे. एक बार एक साहब ने उनसे पूछा कि पुस्तकें तो आपकी ज्यादा बिकती हैं मगर नाम टैगोर का ज्यादा चलता है? इस पर शरत चंद्र ने कहा, “मुझमें और उनमे यह फर्क है कि मैं आप जैसे लोगों के पढने के लिए लिखता हूँ और वह मेरे पढने के लिए लिखते हैं”.
हर चीज़ बाज़ार की नज़र से तोली जाती तो आज कला – साहित्य जगत न जाने कहाँ होता.
सौरभ
I Read it to day and find myself very much deluighted.I am not agree with this not intresting people inthis I maytell to you sir you was getting encourage or not if sh tulsidas think so it was not possible this epic
Aapki shrikhla kafi gyanwardhak hai. Ise aankdon se na tolen. Gyan dene me sankoch na karen.