खैयाम की रुबाइयाँ रघुवंश गुप्त की क़लम से

[कुछ पाठकों ने मेल भेज कर कहा कि मैं ‘उमर खैयाम’  के जीवन-वृत के बारे में विस्तार से लिखुं. तो उन सभी सुधी पाठकों से कहना चाहुंगा कि ‘उमर’ के बारे में नैट पर पहले से ही बहुत जानकारी उपलब्ध है.हाँलाकि अधिकतर जानकारी अंग्रेजी में है फिर भी उसी जानकारी का अनुवाद कर यहां पेश करना एक तरह का दुहराव ही होगा. मेरा प्रयास ‘उमर’ की रुबाइयों को हिन्दी अनुवादकों की नजर से देखना और उस पर अपने विश्लेषण को नैट पर डालना मात्र है. जिन पुस्तकों की बात मैं इस आलेख में कर रहा हूँ उनमें से अधिकांश अब दुकानों में उपलब्ध नहीं है.इसलिये उनकी झलक नैट पर डालना मैं समझता हूँ अधिक श्रेयस्कर होगा. उमर के जीवन पर मौलाना सुलेमान नदवी की एक पुस्तक है “खैयाम” जो दारुल्मुसन्नफीब,आजमगढ़ से प्रकाशित हुई थी.मूल पुस्तक उर्दू में थी लेकिन इसका हिन्दी अनुवाद भी छ्पा था. यदि ज्यादा मांग रही तो फिर कभी इस विषय पर विस्तार से लिखुंगा.अभी तो आप मूल आलेख ही पढें]

पिछ्ले अंको में आपने पढ़ा कि उमर खैयाम की रुबाइयों का अनुवाद श्री रघुवंशलाल गुप्त ने 1938 में किया था. यह पुस्तक किताबिस्तान,इलाहाबाद से छ्पी थी.इसमें भूमिका के रूप में उमर खैयाम का एक वृहत जीवन परिचय भी है.खैयाम के बारे में प्रचलित एक अंग्रेजी पद का सुन्दर अनुवाद रघुवंश जी ने इसी भूमिका में किया है.  raghuvansh_cover

Khayyam, who stitched the tents of science,
Has fallen in grief’s furnace and been suddenly burned,
The shears of Fate have cut the tent ropes of his life,
And the broker of Hope has sold him for nothing!

जो खैयाम सिया करता था “हिकमत” के खेमे अनमोल,
गिरा वही दुख की भट्टी में,अनायास हा गया फफोल.
काल-कतरनी ने दी उसकी ,अल्प आयु की डोरी काट,
“किस्मत” के दलाल ने उसको बेच दिया मिट्टी के मोल.

आइये अब अनुवाद की चर्चा करें. रघुवंश जी ने भी अपनी इस पुस्तक में उमर की रुबाइयों वाले छंद का ही प्रयोग किया है. हाँलाकि पुस्तक की भूमिका के अनुसार उन्होने फिट्जराल्ड की पुस्तक ही अनुवाद के लिये प्रयोग की थी.लेकिन ऎसा लगता है कि रघुवंश जी को उर्दू का काफी अच्छा ज्ञान था. अपनी भूमिका में भी वो उर्दु के एक अनुवाद की चर्चा करते हुए कहते हैं

” उर्दु में खैयाम की मूल रुबाइयों का अनुवाद हमने देखा है;परंतु यह बहुत अच्छा नहीं. न तो इसमें फारसी भाषा का प्राकृतिक पद लालित्य है और न मूल रुबाइयों का प्रसाद गुण”

इसी तरह परिशिष्ट में भी वह खैयाम की पारसी रुबाइयों का हवाला देते हैं. एक बानगी देखिये (चित्र:परिशिष्ट का एक पन्ना).तो लगता है कि उन्होने मूल फारसी को भी पढ़ा था.

raghuvansh_apendix आइये अब कुछ पद देखें.

कवि को जल्दी है कि कहीं जीवन की रात ना हो जाये इससे पहले कि ऎसा हो वो मधु के प्याले में डूब जाना चाहता है.

पौ फटते ही मधुशाला में , गूँजा शब्द निराला एक,
मधुबाला से हँस हँस कर यों कहता था मतवाला एक-
“स्वाँग बहुत है रात रही पर थोड़ी; ढालो,ढालो शीघ्र
जीवन ढल जाने के पहिले ढालो मधु का प्याला एक.”[2]

कवि कहता है कि तू अपने ज्ञान को भूल जा और बस मधुरस का पान किये जा.यह तेरा यौवन थोड़ा ही है इसे जी ले.

ला,ला,साकी! और,और ला;फिर प्याले पर प्याला ढाल;
धर रख ,गूढ़-ज्ञान गाथा को ,व्रत विवेक चूल्हे में डाल.
सिखला रहा ‘त्याग’ की पट्टी,कैसा ज्ञानी है तू मित्र!-
नहीं सूझता क्या तुझको यह यौवन,यह मधु,यह मधुकाल [8]

कवि हर रोज सोचता है कि वो पीना छोड़ देगा लेकिन आज तो बसंतोत्सव है और कवि छ्क कर पीना चाहता है.

यों तो मैं भी नित्य सोचता हूँ अब खाऊंगा सौगन्ध –
इस प्याले का मोह तजूँगा ,पीना कर दूंगा अब बन्द.
किंतु आज तक प्रकृति-प्रिया है आई सज फूलों का साज,
आज बसंतोत्सव है प्रियतम,आज न पीऊँ तो सौगन्ध.[9]

कवि कहता है ये जीवन नश्वर है.इसलिये तेरे-मेरे का चक्कर छोड़ और जीवन को पूरी तरह जीने का माध्यम बन.

नित्य रहेगा नहीं यहाँ, प्रिय, जीवन का यह डेरा कुछ;
प्राण-बटोही उठ जायेंगे करके रैन बसेरा कुछ.
यहाँ पड़े सोते हो जब तक करते हो “तेरा”-“मेरा”,
जीवन-स्वप्न टूट जाने पर, मेरा रहे ना तेरा कुछ.[11]

कवि कहता है असली स्वर्ग तो यहीं इसी धरती पर है.उसके लिये भविष्य की प्रतीक्षा करने की क्या आवश्यकता. इन पदों में देखिये दो मुहावरों “नौ नकद ना तेरह उधार” तथा ” दूर के ढोल सुहावने” का कितना सुन्दर उपयोग किया गया है.

दो मधूकरी हों खाने को , मदिरा हो मनमानी जो,
पास धरी हो मर्म-काव्य की पुस्तक फटी पुरानी जो,
बैठ समीप तान छेड़े, प्रिय, तेरी वीणा-वाणी जो,
तो इस विजन-विपिन पर वारूँ,मिले स्वर्ग सुखदानी जो.[14]

कोई स्वर्ग-लोक के सुख को कहता है अतोल, अनमोल;
कोई राजपाट के ऊपर करता है मन डाँवाडोल ;
गाँठ बाद ले मूर्ख नक़द के नौ, तेरह उधार के छोड़-
यों तो लगते हैं सुहावने सबको सदा दूर के ढोल. [15]

कवि कहता है.चाहे वो राजा हो या रंक सब की मंजिल एक ही है.सबको इस दुनिया को छोड़ जाना ही है.दुख-सुख तो आते जाते रहते हैं. इसलिये इन सब की चिंता में समय मत गंवा और भविष्य की चिताओं की मत सोच. बस यह वर्तमान है इसका जी भर सुख लूट ले.

वह कंगाल जिसे जीवन में जुटे न दाने भी दो सेर-
राजा जो न खर्च कर पाया ,भरे खजानों के भी ढेर,
दोनों ‘माटी’ मिले , किसी का बना न कोई सोना,जो कि
एक बार के गड़े हुए को कोई खोद निकाले फेर.[20]

कब तक, कब तक,मित्र ! फिरोगे जिस-तिस की चिंता में व्यस्त?
कब तक, क्ब तक और रहोगे, दीन और दुनिया में ग्रस्त?
आओ,लो,प्याला भर दो फिर, दो दिन खुल खेलो खैयाम,
सुख-दुख का शशि तो यों ही नित होता अस्त ,उदय ,फिर अस्त.[34]

लो प्याला भर भर दो फिर फिर ,फिर फिर कहने का क्या फल?
हाथों से निकला जाता है लाख लाख का इक इक पल.
बीत चुका जो ‘कल’ होना था ,क्या जाने होगा क्या ‘कल’
आज चैन से कटती है तो ‘कल’ के हित क्यों हो बेकल
[ 46]

यह प्रकृति का नियम है कि जो आया है उसे एक ना एक दिन जाना ही है. यह तो सदियों से पूछा जाने वाला प्रश्न है कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? कहाँ जाउंगा? लेकिन इन सबका उत्तर आखिर जानता कौन है. यह धर्म,रीति-रिवाज सब बेकार हैं. मैं तो बस मदिरा में डूब जाना चाहता हूँ ताकि सदियों से अनुत्तरित प्रश्नों को भी भूल जाऊं.

हा इस क्रूर चक्र के आगे चलता है कोई ना उपाय
अन्त भाग्य के हाथों ही में ,रहता हार जीत का न्याय
कौन,कहाँ से,क्यों आया था ? जान कहाँ, और क्यों,अन्त?
प्रश्न जानता हूँ मै भी सब,उत्तर कौन बताये हाय.[
55]  

बैर ना धर्म से हैं कुछ ,न कुछ विशेष पाप से प्रीति ,
न कुछ बुरी ही लगती मुझको , प्रिय,बे-बात लोक की रीति.
मैं जो प्याले पर मरता हूँ ,सो बस इसी लिये खैयाम,
एक घड़ी को बिसर जाय यह नियति चक्र की निर्मम नीति.[66]

हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है सब किसी अदृश्य सत्ता के हाथ में हैं यदि यह हमारे हाथ में होता तो हम एक नयी सृष्टि की रचना करते जहाँ मन की आशाऎं पूरी हो पातीं.

प्रियतम ! हम-तुम कर पाते जो कहीं नियति नटनी से मेल,
अपने हाथों में होता जो जीवन का यह दुखमय खेल.
तो फिर इसे मिटाकर फिर से रचते ऎसी सृष्टि नवीन
मन की साधें पुजती जिसमें,फलती जहँ आशा की बेल.[71]

इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण में कुल 72 छंद हैं.अगले अंक में चर्चा करेंगे सुमित्रानंदन पंत की पुस्तक “मधुज्वाल” की…

यह श्रंखला आपको कैसी लग रही है टिप्पणीयों के माध्यम से बतायें…

क्रमश:…………………………

इस श्रंखला के पिछ्ले लेख.

1. खैयाम की मधुशाला.. 2. उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद.. 3. मधुशाला में विराम..टिप्पणी चर्चा के लिये 4. उमर की रुबाइयों के अनुवाद भारतीय भाषाओं में  5. मैथिलीशरण गुप्त का अनुवाद

 

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

8 comments

  1. छा गये भाई. यह तो पूरी सीरिज संग्रहणीय है और इस कार्य के लिये आपको जितना भी साधुवाद दूँ, कम है. कोई और बेहतर शब्द तलाशना होगा. 🙂

    लगे रहो भाई…हम इन्तजार कर रहे हैं लाईन में, मित्र.

  2. दो मधूकरी हों खाने को, मदिरा हो मनमानी जो,
    पास धरी हो मर्म-काव्य की पुस्तक फटी पुरानी जो,
    बैठ समीप तान छेड़े, प्रिय, तेरी वीणा-वाणी जो,
    तो इस विजन-विपिन पर वारूँ, मिले स्वर्ग सुखदानी जो
    सचमुच ऐसा हो तो जीवन का आनंद आ जाए। काकेश भाई, क्या कमाल की चाजें उपलब्ध करा रहे हैं। शुक्रिया

  3. भई वाह काकेशजी, झक्कास च बिंदास है जी।
    इसी गोत्र का गालिब का एक शेर यह भी है
    गालिब छुटी शराब मगर अब भी कभी-कभी
    पीता हूं रोज -ए-अब्र, शबे-माहताब में

  4. बहुत बढ़िया ! ये पोस्ट तो छूट गया था पढ़ने से , पहले । और मेरा अनुवाद कितना फूहड़ था ये पता चला मुझे 🙁

  5. रघुवंश गुप्त जी की किताब से और रुबाइयां पढ़ने को मिलती तो अच्छा था, सिर्फ़ ट्रेलर ही दिखा दिए, अब पूरी किताब देखने की इच्छा है। साधुवाद आप को

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