लौट के सैंया घर को आये…

(आज फिर से व्यंग्य लिख रहा हूँ.मधुशाला की दुकान कोई खास चल नहीं रही.इससे पहले कि बाकि बचे ग्राहक भी लौट कर चले जायें और हमें दुकान समेटनी पड़े हमने सोचा कि चलो फिर से अपनी ऑकात पे आ ही जाते हैं.)

बच्चू सिंह जो कल तक मुँह उठाये घूम रहे थे आज मुँह छुपाये घूम रहे हैं.ऎसा नहीं कि उन्होने पहली बार मुँह की खायी है. लेकिन इस बार ये वाकिया तब हुआ जब अभी कुछ ही दिनों पहले उनकी बहू-यानि की उनके सुपुत्र मुन्ना सिंह की पत्नी- की मुँह दिखायी हुई थी.क्या कहेंगे वो लोग जिनके सामने उन्होने अपनी मूंछे उठा कर कहा था “अब हमका कोनो डर नाँही अब हमरो बिटवा कोतवाल हुई गवा.”

मुन्ना सिंह वल्द बच्चू सिंह बचपन से ही पढ़ने में पैदल और लड़ने में माहिर थे.जहाँ बातों से काम चल जाता वहां गाली दे देते. जहां गाली से काम हो सकता था वहाँ डंडा चला देते.कई बार डंडे की आवश्यकता वाली सिचुएसन में कट्टा (देशी तमंचा) भी चला चुके थे. लोगों को डरा धमकाकर अपनी बात मनवाना उनकी छोटी सी गाली का खेल था.आधे लोग उनकी गाली सुनने से पहले ही उनकी बात मान लेते जो नहीं मानते उनके लिये मुन्ना सिंह के पास गालियों का अच्छा खासा खजाना था. यदि मुन्ना सिंह क्रिकेट खेलने जाते तो कोई भी अम्पायर बनने को तैयार नहीं होता था.वो खुद अम्पायर बनने की पेशकश करते तो कोई खेलने को तैयार नहीं होता था. इसीलिये मुन्ना सिंह क्रिकेट नहीं सीख पाये.सीख तो वो फुटबाल भी नहीं पाये थे लेकिन उनको लगता था कि फुटबाल के वह अच्छे खिलाड़ी हैं. वह जगह जगह लात लगाने में माहिर थे और वो फुटबाल को भी ऎसा ही कुछ समझते थे जिसमें सिर्फ लात ही लगायी जाती है.हॉकी को वो डंडा चलाना जैसा मानते थे और उनका विचार था कि इसमें भी वो माहिर हैं हालाँकि इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि वो डंडा चलाने में सचमुच माहिर थे.

गांवो में अक्सर लोग पैदा होते ही नौकरी के बारे नहीं सोचने लगते. शहरों के बच्चों की तरह अनेक योग्यताओं को हासिल कर लेना भी वहाँ की संस्कृति में शामिल न था.शहरों में तो लोग अपने बच्चों को इतनी चीजें इसलिये सिखा देते हैं कि बच्चे ये ना सही तो वो तो बन ही जायें यानि क्रिक्रेटर ना बन पाये तो एक्टर ही बन जायें,एक्टर ना बन पाये तो सिंगर ही बन जायें,सिंगर नहीं तो डॉक्टर बन जाये. कुछ नहीं बन पाये तो नौकर तो बन ही जायें यानि कहीं नौकरी कर लें और हर महीने की पहली तारीख को वेतन के रूप में पूरनमासी का चांद देख लें. मुन्ना सिंह इन सब चिंताओ से दूर थे. वो प्रकृति के साथ साथ बढ़ रहे थे.बैल,भेड़,गधे,कुत्ते सभी उनके सहचर थे और इन सभी की कुछ आदतें भी मुन्ना सिंह को ज्वर की भांति लग गयी थी. कुसंग का ज्वर भयानक होता है लेकिन वो भयानक होते हुए भी किसी के लिये मददगार साबित हो सकता है इसका पता लोगों को तब तक ना था जब तक कि मुन्ना सिंह का नौकरी का बुलावा ना आ गया.

मुन्ना सिंह ऎसे होनवार विरवान थे कि उनके चिकने पातों का पता दूसरे गांवो तक के लोगों को बहुत पहले ही लग गया था. लोग कहते थे कि मुन्ना सिंह एक दिन जरूर नाम करेगा. उनके उज्जडपने,आवारागर्दी और किसी से भी कुछ भी छीन लेने की प्रवृति से प्रभावित होकर लोग कहते थे कि या तो मुन्ना सिंह पुलिस बनेगा या डाकू.मुन्ना सिंह का विश्लेषण था कि जब से घोड़ों का प्रचलन लूटपाट के लिये कम और रेसकोर्स के लिये ज्यादा होने लगा है और जब से लोगों ने सोना चांदी खरीदना छोड़ शेयर खरीदना चालू किया हैं तब से डाकू बनना कोई प्रॉफिटेबल बिजनेस नहीं रहा.और फिर जब वैसी ही लूटने की खुली छूट और सुविधाऎं पुलिस के पास भी हों तो कोई डाकू क्यों बने पुलिस ही न बने? क्यों कोई दस-बीस साल लूट-मार कर अपनी प्रतिभा का परिचय देने के बाद समर्पण कर नेता बनने का इंतजार करे?

पुलिस विभाग में एक सिपाही भी बनने की सोचना जितना आसान होता है बनना उतना ही कठिन.ऎसा ना होता तो देश का हर नागरिक पुलिस विभाग में ही होता. लेकिन मुन्ना सिंह, जो किताब का मुँह देखे बिना मात्र नकल के भरोसे ग्रेजुएट पास हो गये थे, उनके लिये कुछ भी कार्य कठिन नहीं था. उनके लिये यह कुछ पैसों और सही लोगों तक उन पैसों को पहुचाने का ही खेल मात्र  था.अपनी इसी अद्भुत योग्यता के कारण वो पुलिस की भर्ती में चुन लिये गये. सारे गांव में खुशी की लहर तैर गयी. बच्चू सिंह की मूंछे ऊंची हो गयीं. आसपास के गांव के लोग अपनी विवाह योग्य और विवाह अयोग्य कन्याओं के रिश्ते मुन्ना सिंह से जोड़ने के जोड़तोड़ में लग गये.दहेज की मांग का बढ़ना तो जायज था पर अब उसमें कन्या के सुन्दर,सुशील और सुसंस्कृत होने की मांग भी जुड़ गयी.       

जोड़तोड़ जहाँ हो वहाँ कुछ ना कुछ हासिल होता ही है. इस परंपरा से ही विगत कई सालों से देश का शासन चल रहा है. उसी तरह के जोड़तोड़ के फलस्वरूप मुन्ना सिंह की शादी भी पक्की हो गयी. बरात के दिन दहेज के साथ साथ  दारू की नदियां कुछ इस तरह बहीं जिस तरह जिस तरह अपने देश में कभी दूध की नदियां बहती होंगी.चारों ओर उत्सव का माहौल था. मुन्ना सिंह ने शादी के दिन भी पुलिस की वर्दी पहनी और सेहरे के बदले सर पे पुलिसिया टोपी लगायी.उनका कहना था इससे इम्प्रेशन बराबर पड़ता है….और इम्प्रेशन सही पड़ा भी. रास्ते में वसूली करते हुए कुछ अतिरिक्त दहेज का  जुगाड़ भी कर लिया. इस तरह विवाह संपन्न हुआ.

गांव वालों ने चैन की सांस ली.उन्हे शुकून हुआ कि अब गांव की लड़कियाँ बिना मुन्ना सिंह से डरे हुए आ जा सकेंगी क्योंकि अब स्थायी रूप से मिसेज मुन्ना सिंह आ गयी थी.मिसेज मुन्ना सिंह ने ससुराल में आकर अपनी गायन कला से सबको प्रभावित करने के लिये गाया. ‘सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का’.ये अलग बात है कि उन्हें खुद ही अपने सैया यानि मुन्ना सिंह से डर लगता था. बात बात पर उसे घुड़क देते और वो निरीह जनता की तरह कुछ कह भी नहीं पाती थी.लेकिन फिर भी उन्हें संतोष था कि वो एक पुलिस वाले की धर्मपत्नी हैं.  

कुछ दिन अपनी पत्नी के साथ हँसी खुशी रह मुन्ना सिंह नौकरी करने शहर लौट आये.सब कुछ सही जा रहा था.लेकिन होनी को कौन टाल सकता है.प्रदेश में सरकार बदल गयी और जैसा अक्सर होता है कि सरकार बदलने पर तबादले करने की परम्परा का पालन किया जाता है पूर्ववर्ती सरकार के बनाये नियमों को भ्रष्टाचार की आड़ में  बदल दिया जाता हैं वैसा ही कुछ हुआ.सरकार को पता लगा कि पुलिस की भर्ती में जमकर धांधली हुई है हाँलाकि सभी जानते थे कि ऎसी धाधली हमेशा से होती आयी है लेकिन इस बार आदेश हुआ कि कई पुलिस वालों को निकाला जायेगा.संयोग या दुर्योग से मुन्ना सिंह का नाम भी निकाले जाने वालों में शामिल था.मुन्ना सिंह बेरोजगार हो गये. सारे घर में कोहराम मच गया. मिसेज मुन्ना सिंह को अपना पुराना बेरोजगार प्रेमी याद आने लगा. हाँलाकि मुन्ना सिंह आश्वस्त थे कि अगली भर्ती में भी वो पुलिस के लिये चुन लिये जायेंगे. उनको अपनी योग्यता और भर्ती करने वालों के चरित्र पर पूरा भरोसा था. लेकिन एक बार के लिये तो बेइज्जती खराब हो ही गयी थी.इसी बात का दुख था उन्हें. वो रह रहकर बड़े शौक से सिलवायी हुई अपनी नयी वर्दियों को देख रहे थे.रह रहकर उनके सामने रिश्वत लेकर जेब में रखने के सपने आते रहते लेकिन क्या किया जा सकता था. दुखी मन से मुन्ना सिंह गांव जाने वाली ट्रेन में सवार हो गये.

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

16 comments

  1. अरे काकेश जी आपकी मधुशाला तो बहुत अच्छी जा रही थी.कृपया उसे बन्द ना करें.
    व्यंग्य के तो आप सम्राट हैं ही वो तो आप लिखते रहेंगें.लेकिन उमर की रुबाइयों से हमें महरूम ना करें.

    यह व्यंग्य भी मस्त रहा 🙂

  2. मधुशाला की दुकान कोई खास चल नहीं रही….
    ———————————–

    यह समझ में नहीं आया। पर आप कह रहे हैं तो सही तो होगा ही।
    शायद ब्लॉग पाठक धारावाहिक की निरंतरता मेण्टेन न कर पाता हो। तब खय्याम जैसे पर धारावाहिक की बजाय ऐसे लेख होने चाहियें जो कुछ-कुछ समय के अंतराल पर हों और ऐसे हों कि किसी ने अन्य न भी पढ़े हों तो भी रस ले सके।
    मैने आपका लेखन बहुत सशक्त पाया है और फोन पर शिवकुमार मिश्र ने भी इसकी पुष्टि की है।

    बाकी; मुन्ना सिंह के बेइज्जती के अपमान पर बहुत खराब लग रहा है! 🙂

  3. क्या मस्त व्यंग्य लिखते हो तो काहे दायें बायें भागे…वैसे हम तो तुम्हारी हर लेखनी के दीवाने हैं. 🙂

    जारी रहो.

  4. मुन्ना सिंह के साथ जो हुआ वह दुखद है लेकिन आगे सब ठीक हो जायेगा। मुन्ना सिंह जैसे लोग कभी असफ़ल नहीं हो सकते। मधुशाला सीरीज जारी रखें। ये काम अमूल्य हैं।

  5. मुझे मुन्ना सिंह के साथ पूरी हमदर्दी है। वैसे आपने भी क्या मुहावरे सुना-सुनाकर मुन्ना सिंह की लुग्दी निकाली है!!

  6. इससे पहले कि बाकि बचे ग्राहक भी लौट कर चले जायें और हमें दुकान समेटनी पड़े हमने सोचा कि चलो फिर से अपनी ऑकात पे आ ही जाते हैं….

    आप तात्कालिक ग्राहकों के पीछे क्यों पड़े हैं? मेरे विचार में तो आप व्यंग्य की दुकान तो चलने ही दें, मधुशाला, हाला, और बाला जैसी दुकानें भी धड़ाधड़ चलाते रहें. कंटेंट इज़ दि किंग – हौसला रखिए, लोगबाग ढूंढ ढांढ कर खोज बीन कर आपके चिट्ठे पर सामग्री के लिए आते रहेंगे. 🙂

  7. कहां काकेशजी आप भटके कहां थे।
    यूं बीच-बीच में खैयाम,फिलोसोफी,दारु,जीवन, मौत, जीवन की सीरियस बातें करनी चाहिए, वरना व्यंग्यकार को निहायत अनपढ़ टाइप का बंदा मान लिया जाता है।
    प्यारे सीरियस होना भर काफी नहीं है, लंबा सा लटकऊल मुंह लेकर सीरियस दिखना भी जरुरी है।
    मुन्ना सिंह की अभी ऐसी तैसी कर लो, आने तो मुलायम सिंह की सरकार, फिर दंड पेलेंगे। और फिर योग्य क्या अयोग्य कन्याओँ के बाप भी पचास-साठ लाख के दहेज में सौदा करने घूमेंगे।

  8. प्रदेश है तो लोकतंत्र है
    लोकतंत्र है तो जनता है
    जनता है तो नेता है
    नेता है तो चुनाव है
    चुनाव है तो आशा है
    की सरकारें बदलती रहेंगी

    मुन्ना सिंह फिर आएंगे. जब तक पुलिस की वर्दी नहीं मिल जाती, गुन्दागर्दी से काम चला लेंगे. बात तो एक ही है.

    वैसे ‘मधुशाला की दुकान’ के प्रयोग से लोग और कुछ समझ सकते हैं. व्यापार बढ़ रहा है. शेयर मार्केट बढ़ रहा है.लोगों की सोच ‘आर्थिक’ हो गयी है. कहीँ लोग ये न सोच लें कि काकेश जी व्यंग छोड़ कर रीयल इस्टेट के बिजनेस में…….:-)

  9. बहुत खूब काकेश जी , मजा आ गया । किन्तु मुन्ना सिंह के साथ होते अत्याचार का हम घोर विरोध करेंगे । कल उनको न्याय दिलाने के लिए हम सुबह ११ बजे से दोपहर १ बजे तक भूख हड़ताल करेंगे । आप सब को भी हमारे साथ भूख हड़ताल करने का निमन्त्रण है।
    घुघूती बासूती

  10. BHAI WAH! AAP TO SACHMUCH KAMAAL KARTE HO,
    LAFZON KO CHHURI JAISE ISTEMAAL KARTE HO ;
    HASYA KE HAATHON VYAVASTHA KE RUGNA CHEHRE PAR,
    ASHK ARTHON KE, VYANGYA KE RUMAAL RAKHTE HO….

    PYAARE CIRCUIT! LAGE RAHO MUNNA (BHAI) KE SAATH…………….

    देवनगिरी रुपांतरण : काकेश

    भाई वाह! आप तो सचमुच कमाल करते हो
    लफ़्जों को छूरी जैसे इस्तेमाल करते हो
    हास्य के हाथों व्यवस्था के रुग्ण चेहरे पर
    अश्क अर्थों के, व्यंग्य के रुमाल रखते हो.

  11. काकेश बाबू
    मुंह से शुरू करके आप ऐसा अवारागर्दी, उजड्डपना तक लै पहुंचे हैं कि का बताई। वैसे सच्चाई यही है कि सब मुंहै क खेल है। बढ़िया है भई लिखे रहो।

  12. च च बेचारा मुन्नासिंह, खैर समय बहुत बलवान है।

    ऊपर रवि जी से सहमत हूँ। एग्रीगेटरों से आगे की सोचें गूगल बाबा पर विश्वास करें। उम्दा लेखन जारी रखें, धीरे-धीरे पाठक बढ़ते रहेंगे।

  13. मुन्ना सिंह से हमें भी सहानुभूति है जी …आप को एक नहीं कम से कम दस ब्लोग चलाने चाहिएं और हर नये आने वाले को पहले आप के ब्लोग पढ़वाने चाहिएं। एक्दम स्टीक व्यंग है जी, इतना अच्छा लिखने वाले मार्केटिंग में कमजोर पढ़ गये वर्ना हम ब्लोग की दुनिया में एन्ट्री आप के ब्लोग से लेते।

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