मैं पापन ऎसी जली कोयला भई न राख

पिछ्ले अंक में अतुल जी ने कहा “ये व्यंग्य तो अंत में बड़ा ही मार्मिक हो गया है। किबला से एक जुड़ाव सा हो गया था अब उनका यूँ टूट जाना दु:खदायी लग रहा है।”. युसुफी साहब की यही खासियत है कि उनके व्यंग्य एक और जहां शुद्ध हास्य हैं वहीं दूसरी ओर मार्मिक भी है और उनमें जिन्दगी का पूरा फ़लसफा भी है. आज पढिये किबला की कहानी का अंतिम भाग. अगले शुक्रवार से दूसरी कहानी प्रस्तुत की जायेगी.

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मैं पापन ऎसी जली कोयला भई न राख

उन्हें उस रात नींद नहीं आयी। फ़ज़्र (सूरज निकलने से पहले की नमाज़) की अज़ान हो रही थी कि टिम्बर मार्किट का एक चौकीदार हांपता-कांपता आया और खब़र दी कि “साहब जी! आपकी दुकान और गोदाम में आग लग गई है। आग बुझाने के इंजन तीन बजे ही आ गये थे। सारा माल कोयला हो गया। साहब जी! आग कोई आप ही आप थोड़ी लगती है।“ वो जिस समय दुकान पर पहुंचे तो सरकारी ज़बान में आग पर काबू पाया जा चुका था। जिसमें फ़ायर बिग्रेड की मुस्तैदी और भरपूर कार्यक्षमता के अलावा इसका भी बड़ा दख्ल़ था कि अब जलने के लिये कुछ रहा नहीं था। शोलों की लपलपाती ज़बानें काली हो चुकी थीं।

अलबत्ता चीड़ के तख्त़े अभी तक धड़-धड़ जल रहे थे, और वातावरण दूर-दूर तक उनकी तेज़ खुशबू में नहाया हुआ था। माल जितना था सब जल कर राख हो चुका था, सिर्फ़ कोने में उनका छोटा सा दफ़्तर बचा था।

अरसा हुआ, कानपुर में जब लाला रमेश चन्द्र ने उनसे कहा कि हालात ठीक नहीं हैं, गोदाम की इंश्योरेंस पालिसी ले लो, तो उन्होंने मलमल के कुर्ते की चुनी हुई आस्तीन उलट कर अपने बाज़ू की फड़कती हुई मछलियां दिखाते हुए कहा था। “ यह रही यारों की इंश्योरेंस पालिसी! “ फिर अपने डंटर फुला कर लाला रमेश चन्द्र से कहा, ”ज़रा छू कर देखो“ लाला जी ने अचम्भे से कहा ”लोहा है लोहा!” बोले ”नहीं फ़ौलाद कहो।“

दुकान के सामने लोगों की भीड़ लगी थी। उनको लोगों ने इस तरह रास्ता दिया जैसे जनाज़े को देते हैं। उनका चेहरा एकदम भावहीन था। उन्होंने अपने दफ्तर का ताला खोला। इनकमटैक्स का हिसाब और रजिस्टर बगल़ में दाबे और गोदाम के पश्चिमी हिस्से में जहां चीड़ से अभी शोले और खुशबू की लपटें उठ रही थीं, तेज़-तेज कदमों से गये। पहले इनकमटैक्स के खाते और उनके बाद चाबियों का गुच्छा आग में डाला। फिर आहिस्ता-आहिस्ता दायें-बायें नज़र उठाये बिना दुबारा अपने दफ्त़र में दाखिल हुए। हवेली का फ़ोटो दीवार से उतारा। रूमाल से पोंछ कर बगल़ में दबाया और दुकान जलती छोड़ कर घर चले आये।

बीबी ने पूछा ”अब क्या होयेगा?“

उन्होंने सर झुका लिया।

अक्सर ख्याल आता है, अगर फ़रिश्ते उन्हें जन्नत की तरफ़ ले गये जहां मोतिया धूप होगी और कासनी बादल, तो वो जन्नत के दरवाज़े पर कुछ सोच कर ठिठक जायेंगे। दरबान जल्दी अंदर दाखिल होने का इशारा करेगा तो वो सीना ताने उसके पास जा कर कुछ दिखाते हुए कहेंगे:

“यह छोड़ कर आये हैं।“

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जायेगी]

[अगले शुक्रवार से नयी कहानी प्रस्तुत की जायेगी]

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1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़ 5. हवेली की पीड़ा कराची में 6. हवेली की हवाबाजी 7. वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है 8. इम्पोर्टेड बुज़ुर्ग और यूनानी नाक 9. कटखने बिलाव के गले में घंटी 10. हूँ तो सज़ा का पात्र, पर इल्ज़ाम ग़लत है 11. अंतिम समय और जूं का ब्लड टैस्ट 12. टार्जन की वापसी 13. माशूक के होंठ 14. मीर तकी मीर कराची में 15. दौड़ता हुआ पेड़ 16. क़िबला का रेडियो ऊंचा सुनता था 17. बीबी! मिट्टी सदा सुहागन है. 18. खरबूजा खुद को गोल कर ले तब भी तरबूज नहीं बन सकता 19. कौन कैसे टूटता है ?

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किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

3 comments

  1. उन्होंने सर झुका लिया।
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    किबला; न सर झुका के जियो, न मुंह छिपा के जियो। गमों का दौर भी आये तो मुस्करा के जियो।
    चीयर अप किबला!

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