मैं बुद्धिजीवी नहीं हूँ यानि मैं कोई ऎसा काम नहीं करता जिसमें बुद्धि की तनिक भी जरूरत होती है. इससे कहीं आप यह ना समझें कि मैं एक नेता हूँ या हिन्दी का कवि हूँ इसलिये साफ कर दूँ कि मैं यह दोनों भी नहीं हूँ. लेकिन फिर भी मैं हूँ. मेरा अस्तित्व है. इसलिये देखता हूँ.मन हो तो कभी कभी सोचता भी हूँ. सोचने के लिये मुझे बुद्धि की जरूरत नहीं होती. मैं कुछ सोचना ना भी चाहूँ तो भी दिमाग कुछ ना कुछ सोचता ही है.इसलिये मैं सोचने का क्रेडिट नहीं लेना चाहता. कुछ लोग इसी सोच का क्रेडिट ले लेते है.वह इस सोच को अपनी बुद्धि समझते है और खुद को बुद्धिजीवी.
हमारा देश बुद्धिजीवीयों का देश है.लोग हर काम में अपनी बुद्धि लगाते हैं. ऎसा वह खुद के कामों में नहीं दूसरे के कामों में करते हैं. खुद के काम बिना बुद्धि के भी हों तो चलता है बस किसी भी काम में सिर्फ इतना होना चाहिये कि पैसा बराबर आता रहे. बुद्धि लगे ना लगे. पैसा बुद्धि से ज्यादा महत्वपूर्ण है और इसे कमाने के लिये बुद्धि लगे यह जरूरी नहीं है. लेकिन दूसरे के हर काम में अपनी बुद्धि लगाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है. मुझे लगता है जब इस देश के लोग स्वतंत्रता की मांग कर रहे होंगे तो उनका लक्ष्य यह ही रहा होगा कि हम स्वतंत्र हो जायें ताकि दूसरे के कामों में अपनी बुद्धि लगा सकें. माफ कीजिये मैं स्वतंत्र भारत में पैदा हुआ इसलिये सिर्फ अनुमान ही लगा सकता हूँ और फिर मैं इतिहासकार भी नहीं हूँ-बुद्धिजीवी तो नहीं ही हूँ, कि अपने अनुमानों को किसी तरह से सिद्ध भी कर सकूँ.
दूसरे के कामों में अपनी बुद्धि लगाना हमारे अस्तित्व का प्रतीक है. यदि हम हैं तो बुद्धि लगायेंगे.दूसरों के चलने से लेकर खाने तक, उठने से लेकर बैठने तक, पत्नी से लेकर लिखने तक (यहाँ आशय पत्नी द्वारा लिखे को छापने से नहीं है) सब जगह अपनी बुद्धि का खटोला बिछाना जरूरी है.इसी खटोले पर जब हमारे तर्कों,वितर्को और कुतर्को के बच्चे अठखेलियां करें तो कलेजे में ठंडक सी होती हैं. वाह बच्चे बड़े हो रहे हैं और हम बूढ़े.
पहले बढ़ी हुई दाढ़ी, कंधे से लटका हुआ झोला-उसमें चंद किताबें और लिफाफे,हाथों में सिगरेट यह एक बुद्धिजीवी की पहचान थी.कालांतर में इस छवि में परिवर्तन हुआ. अब आप क्लीन शेव भी हो सकते हैं, झोला विहीन भी भ्रमण कर सकते हैं,सिगरेट छोड़ भी सकते हैं लेकिन दूसरो के कामों में बुद्धि लगाना नहीं छोड़ सकते. वही आपका असली धंधा है.
भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है. हम बुद्धि की खेती करते हैं. बुद्धिजीवीयों की फसलें लहलहाती है.फसल ज्यादा होने पर हम बुद्धिजीवी एक्स्पोर्ट भी करते हैं.लेकिन ध्येय यही रहता है कि बुद्धिजीवी जहां जाये वहाँ कमाता खाता रहे. बोझा ना बने. दूसरों को बोझा उठाना सिखाये और खुद मजदूरी ले.हमारा यह परम कर्तव्य है कि हम खुशी खुशी यह मजदूरी दे दें.यह एक स्वचालित प्रक्रिया है. हमें इसके लिये सोचना नहीं पड़ता. बचपन से हम देखते आये हैं जो नेता झूठ के ज्यादा पुलिंदे बांध सकता है वही हमारे वोट का अधिकारी होता है.अब नेता बुद्धिजीवी नहीं हो सकता यह सर्वमान्य है लेकिन बुद्धिजीवी तो नेता हो ही सकता है. इसमें कहां कैसा प्रश्न.
‘नेता बुद्धिजीवी नहीं हो सकते पर बुद्धिजीवी तो नेता हो सकते हैं’
गलत है काकेश बाबू अब तो सारे बुद्धिजीवी नेता हो गए हैं। औ नेतागीरी कर लेते हैं तभी बुद्धिजीवी कहलाते हैं, उसके बिना बुद्धिजीवी मानेगा कौन। औ बुद्धिजीवी नेता एक बार सत्ता में आया तो, बुद्धि दूसरों के लिए लगाना बंद कर देता है। बस अपने कल्याण में लगाता है।
काकेश आपने लिखा बहुत अच्छा है।
बुद्धिजीवी माने हाईली इम्प्रेसिव और थॉरोली यूजलेस!
भारत एक “agriculture” प्रधान देश है और हम (सारे बुद्धिजीवी) ऐग्री करने के कल्चर में विश्वास करते है। वैसे नेतागिरी का बुद्धि से कोई लेना देना नहीं है।
कालांतर में इस छवि में परिवर्तन हुआ. अब आप क्लीन शेव भी हो सकते हैं, झोला विहीन भी भ्रमण कर सकते हैं,सिगरेट छोड़ भी सकते हैं लेकिन दूसरो के कामों में बुद्धि लगाना नहीं छोड़ सकते. वही आपका असली धंधा है.
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बहुत मज़ेदार ! सही पकडा है ।
मै अरूण अरोरा यहा एतद द्वारा घोषित करता हू कि हमारा भी बुद्धी से कोई लेना देना नही है.हमने कही भी कही भी आज तक बुद्धि का कोई प्रयोग नही किया है (अगर जरा भी किया होता तो यहा ब्लोगिंग मे ब्लोगरो के साथ समय ना खराब कर मुद्रा कमा रहे होते ..कम से कम एड्सेंस से ही सही..)इसलिये किसी भी कोने से हम बुद्धी जीवी नही है..
मुझे यकीन है आपने ये सब लिखने में कोई बुद्धि नहीं लगाई है फिर भी एक बात पूछना है।
एक चीज़ होती है विमर्श, क्या इसमें भी बुद्धि की ज़रूरत होती है?
भाई साहब के कहने का मतलब है कि लिखने से पहले इनसे विमर्श क्यों नहीं किया आपने.
Anonymous भैया मुझ बुद्धिहीन की टिप्पणी में क्यों बुद्धि लगा रहे हैं?
रही बात काकेश महोदय की हमसे विमर्श लेने की, तो समझ लें हमारी पहले से ही आपसी सेटिंग है 🙂
विमर्श न लेने की?
अगर ऐसा है तो फिर काहे की शिकायत?
अरे Anonymous भैया/दीदी, इस अल्पबुद्धि को कोई शिकायत नहीं है जी 🙂
आप व्यर्थ ही दूसरों के काम में बुद्धि लगा रहे हैं। मैंने काकेशजी को जो कहा वो केवल उनके लिए ही है और वे समझ गए हैं। आप क्यों में परेशान हो रहे हैं?
वैसे भी हम अरुणजी अरोरा के पदचिह्नों पर ही चल रहे हैं।
बढ़िया है काकेश जी,
आप बुद्धि और बुद्धिजीवी पर चर्चा कर रहे हैं तो में आपको एक बात बताना चाहूँगा (संभवतः इस पर अपने ब्लॉग में भी एक दो दिन में कुछ डालूँगा) कि मेरी बुद्धि पर एक बुद्धिजीवी ने अपना पुरा संपादकीय ही ठोक दिया है. में बात कर रहा हूँ अहा!! ज़िंदगी !! पत्रिका की. संपादक यशवंत व्यास ने मेरे कार्टून की सोच पर सम्पादकीय लिखा है. आप पढ़ें.
kasam udan jhalle ki miyan is puri post me tumne itni jegah buddhi likh daala hai ki mujhe to buddhijivi hi lag rahe ho…..ab bhala aap kuch bhi kehte raho.