अगड़म बगड़म वाले आलोक जी ने टिप्पणी की “ये सच्चे अर्थों में अद्भभुत उपन्यास है। इसकी कई परतें हैंजी, जितनी बार पढ़ेंगे, उतनी बार नयी खुलेंगी। व्यंग्यकार सच्ची में क्या होता है. कितना पढ़ा लिखा होता है, कित्ता बड़ा आबजर्वर होता है., ये मसले इस उपन्यास को पढ़कर खुलते हैं।दरअसल यह किताब हास्य-व्यंग्य की टेक्स्टबुकों में एक मानी चाहिए।” यहाँ पर मैं यह खुलासा करता चलूँ कि इस उपन्यास के विमोचन समारोह का निमंत्रण मुझे आलोक जी की वजह से ही मिला था वरना अपन को पहचानता ही कौन है. तो लीजिये पेश है अगली कड़ी.
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रावण क्यों मारा गया
क़िबला की दुकानदारी और उनकी लायी हुई परेशानियों का कोई एक उदाहरण हो तो बतायें। कोई ग्राहक ज़रा-सा भी उनकी किसी बात या भाव पर शक करे तो फ़िर उसकी इज़्ज़त ही नहीं, हाथ पैर की भी ख़ैर नहीं। एक बार जल्दी में थे। लकड़ी की क़ीमत छूटते ही दस रुपये बता दी। देहाती ग्राहक ने पौने दस रुपये लगाये और ये गाली देते हुए मारने को दौड़े कि जट गंवार की इतनी हिम्मत कैसे हुई। दुकान में एक टूटी हुई चारपाई पड़ी रहती थी। जिसके बानों को चुरा-चुरा कर आरा खींचने वाले मज़दूर चिलम में भरकर सुल्फे के दम लगाते थे। क़िबला जब बाक़ायदा सशस्त्र हो कर हमला करना चाहते तो इस चारपाई का सेरुवा यानी सिरहाने की पट्टी निकालकर अपने दुश्मन (ग्राहक) पर झपटते। अक्सर सेरुवे को पुचकारते हुए कहते, “अजीब सख़्तजान है, आज तक इसमें फ़्रैक्चर नहीं हुआ। लठ रखना बुज़दिलों और गंवारों का काम है और लाठी चलाना कसाई, कुजड़ों, गुंडों और पुलिस का।“ प्रयोग में लाने के बाद सेरुवे की फर्स्ट एड करके यानी अंगोछे से अच्छी तरह झाड़-पोंछ कर वापस झिलंगे में लगा देते। इस तरीके में ख़ास बात शायद यह थी कि चारपाई तक जाने और सेरुवा निकालने के बीच अगर गुस्से को ठंडा होना है तो हो जाये, और जिस पर गुस्सा किया जा रहा है वो अपनी टांगों का प्रयोग करने में कंजूसी से काम न ले। (एक पुरानी चीनी कहावत है कि लड़ाई के जो तीन सौ सतरह पैंतरे ज्ञानियों ने गिनवाये हैं, उनमें जो पैंतरा सबसे उपयोगी बताया गया है वो यह है कि भाग लो) इसकी पुष्टि हिन्दू देवमाला से भी होती है। रावण के दस सर और बीस हाथ थे, फ़िर भी मारा गया। इसकी वज्ह हमारी समझ में तो यही आती है-भागने के लिये टांगें सिर्फ दो थीं। हमला करने से पहले क़िबला कुछ देर खौंखियाते ताकि विरोधी अपनी जान बचाना चाहता है तो बचा ले।बताते थे, आज तक ऐसा नहीं हुआ कि किसी की ठुकाई करने से पहले मैंने उसे गाली देकर खबरदार न किया हो।
हूँ तो सज़ा का पात्र, पर इल्ज़ाम ग़लत है
क़िबला का आतंक सबके दिलों पर बैठा था, बस दायीं तरफ़ वाला दुकानदार बचा हुआ था। वो कन्नौज का रहने वाला, अत्यिध्क दंभी, हथछुट, दुर्व्यवहारी और बुरी ज़बान का आदमी था। उम्र में क़िबला से बीस साल कम होगा। यानी जवान और धृष्ट। कुछ साल पहले तक अखाड़े में बाक़ायदा ज़ोर करता था। पहलवान सेठ कहलाता था। एक दिन ऐसा हुआ कि एक ग्राहक क़िबला की सीमा में 3/4 प्रवेश कर चुका था कि पहलवान सेठ उसे पकड़ कर घसीटता हुआ अपनी दुकान में ले गया और क़िबला “महाराज! महाराज!” पुकारते ही रह गये। कुछ देर बाद वो उसकी दुकान में घुस कर ग्राहक को छुड़ाकर लाने की कोशिश कर रहे थे कि पहलवान सेठ ने उनको वो गाली दी जो वो खुद सबको दिया करते थे।
फ़िर क्या था। क़िबला ने अपने ख़ास शस्त्र-भंडार से यानी चारपाई से पट्टी निकाली और नंगे-पैर दौड़ते हुए उसकी दुकान में दुबारा घुसे। ग्राहक ने बीच-बचाव कराने का प्रयास किया और पहली झपट में अपना दांत तुड़वाकर बीच-बचाव की कारवाई से रिटायर हो गया। बुरी ज़बान वाला पहलवान सेठ दुकान छोड़ कर बगटुट भागा। क़िबला उसके पीछे सरपट। थोड़ी दूर जा कर उसका पांव रेल की पटरी में उलझा और वो मुंह के बल गिरा। क़िबला ने जा लिया। पूरी ताकत से ऐसा वार किया कि पट्टी के दो टुकड़े हो गये। मालूम नहीं इससे चोट आयी या रेल की पटरी पर गिरने से, वो देर तक बेहोश पड़ा रहा। उसके गिर्द खून की तलैया-सी बन गयी।
पहलवान सेठ की टांग के मल्टीपल फ़्रैक्चर में गैंग्रीन हो गया और टांग काट दी गयी। फौजदारी का मुक़दमा बन गया। उसने पुलिस को खूब पैसा खिलाया और पुलिस ने पुरानी दुश्मनी के आधार पर क़िबला का, कत्ल की कोशिश के इल्ज़ाम में, चालान पेश कर दिया। लम्बी चौड़ी चार्ज शीट सुनकर, क़िबला कहने लगे कि टांग का नहीं क़ानून का मल्टीपल फ़्रैक्चर हुआ है। पुलिस गिरफ्ऱतार करके ले जाने लगी तो बीबी ने पूछा ‘अब क्या होयेगा?’ कंधे उचकाते हुए बोले ‘देखेंगे।’ अदालत में बीच-बचाव करने वाले ग्राहक का दांत और कत्ल का हथियार यानी चारपाई की खून पिलायी हुई पट्टी Exhibits के तौर पर पेश किये गये। मुकद्दमा सेशन के सुपुर्द हो गया। क़िबला कुछ अर्से रिमांड पर न्यायिक हिरासत में रहे थे। अब जेल में बाक़ायदा खूनियों, डाकुओं, जेबकतरों और आदी-मुजरिमों के साथ रहना पड़ा। तीन-चार मुचैटों के बाद वो भी क़िबला को अपना चचा कहने और मानने लगे।
उनकी ओर से यानी बचाव-पक्ष के वकील की हैसियत से कानपुर के एक योग्य बैरिस्टर मुस्तफा रजा क़िज़िलबाश ने पैरवी की, मगर वकील और मुविक्कल की किसी एक बात पर भी सहमति न हो सकी। क़िबला को ज़िद थी कि मैं हलफ़ उठा कर यह बयान दूंगा कि शिकायत करने वाले ने अपनी वल्दियत ग़लत लिखवाई है, इसकी सूरत अपने बाप से नहीं, बाप के एक बदचलन दोस्त से मिलती है।
वकील साहब इस बात पर ज़ोर देना चाहते थे कि चोट रेल की पटरी पर गिरने से आई है, मुल्ज़िम के मारने से नहीं, उधर क़िबला अदालत में फ़िल्मी बैरिस्टरों की तरह टहल-टहल कर कटहरे को झंझोड़-झंझोड़ कर ये एलान करना चाहते थे कि मैं सिपाही का बच्चा हूं। दुकानदारी मेरे लिये कभी मान-सम्मान पाने का ज़रिया नहीं रही, बल्कि काफी समय से आमदनी का ज़रिया भी नहीं रही। टांग पर वार करना हमारी सिपाहियाना शान और मर्दानगी की तौहीन है। मैं तो दरअसल इसका सर टुकड़े-टुकड़े करना चाहता था। इसलिये अगर मुझे सज़ा देना ही ज़ुरूरी है तो टांग तोड़ने की नहीं, ग़लत निशाने की दीजिये। “सज़ा का पात्र हूं, मगर इल्ज़ाम ग़लत है।“
जारी………………
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पिछले अंक : 1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़ 5. हवेली की पीड़ा कराची में 6. हवेली की हवाबाजी 7. वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है 8. इम्पोर्टेड बुज़ुर्ग और यूनानी नाक 9. कटखने बिलाव के गले में घंटी
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किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
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वाह पढ़ कर आनंद आया. दीपावली कि व्यस्तता के कारन बीच की कुछ कडियाँ छुट गई है. पहली फुरसत मे ही उनको पढ़कर अपना खून बढाऊंगा. एक बात है किबला है अति रोचक. उनसे परिचय कराने के लिए एक बार फ़िर धन्यवाद.
बताओ – किबला की मार से पहलवान को गैगरिन हो रहा है और बालकिशन फुरसत में पढ़ कर खून बढ़ाने की बात कर रहे हैं – यह है सटायर का वीभत्सरसीकरण!
मस्त!!
वाह ! बहुत दिनों पहले “अकबरी लोटा ” पढ़कर इतनी हँसी आई थी. वैसे अब हिन्दी साहित्य जगत से इतना सम्पर्क भी न रहा. मैं जिस पीढ़ी को “बिलोंग” करता हूँ उसे हिन्दी – विंदी जैसी तुच्छ भाषा का अध्ययन करने का समय कहाँ? वह तो “फाइव पॉइंट समवन” जैसी टाइमपास पुस्तकें पढने में मशगूल है.
अभी मैं यह सोच रहा हूँ की इस पीढ़ी के बीच हिन्दी साहित्य को कैसे और लोकप्रिय बनाया जा सके? साहित्य और संगीत तो एक काल, भाषा या संस्कृति से परे हैं. ऐसे कोई ख़ास वजह तो नहीं है कि युवाजन को यह सब पसंद न आए..? उफ़ वही पुराना आलाप .. 🙁
बाकी काकेश जी मेरा हिन्दी चिठ्ठा जगत में मेरा स्वागत करने के लिए धन्यवाद. आपकी राय मानकर मैंने कुछ बदलाव किए हैं. ऊपर और भी महानुभावों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं , अब जरा उनके ब्लोग्स के दर्शन का भी आनंद ले लूँ. 🙂
मेरे ब्लोगाव्लोकन के लिए शुक्रिया.
सौरभ
are aap bhi dot com par milane lage ! sahi hai ! avinaash kee bhaashaa me kahane ka man hai ki Kakesh bhi ek dot com hi hai .
🙂
एक बार शुक्लजी ने “राग दरबारी” की कड़ीयाँ छाप कर पाप किया था, और प्रायश्चित के रूप में हमें किताब खरीद कर पढ़ेनी पड़ी थी. 🙂
अब आप भी वही कर रहें है.
इस तरह क्रमश: देने के लिये आभार. कहीं आखिरी अध्याय से पहले आप रोक तो नहीं देंगे — शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??